संत रविदास जयंती : राम के बिना इस जंजाल से मुक्ति पाना कठिन

जयपुर। राम बिन संसै गांठिन छुटै। अर्थात राम के बिना इस जंजाल से मुक्ति कठिन है। ये कहते थे महान संत रविदास। भारतीय संत परम्परा के महान संत रविदास जी, जिन्हें राजस्थान में ‘रैदास’ कहा जाता है, इनका जन्म माघ माह की पूर्णिमा को हुआ था। अपने मृदु स्वभाव, महान विचार, आत्मानुभव, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के कारण उनके अंदर एक ऐसी प्रतिभा जाग्रत हो चुकी थी, जो भी उनके संपर्क में आता वो मंत्र मुग्ध होए बिना नहीं रह पाता।

रामानंद के शिष्य रैदास का राजस्थान से विशेष संबंध रहा है। मेड़ता की राजकुमारी व मेवाड़ राजघराने की महारानी संतशिरोमणी मीरा बाई के वे आध्यात्मिक गुरु थे। रविदास के चित्तौड़ प्रवास के समय मीरा बाई ने उनके सानिध्य में ही आध्यात्मिक जगत में परम पद प्राप्त किया था। इनके कहने पर ही मीरा ने भगवत भक्ति के लिए द्वारिका की ओर प्रस्थान किया था।

मीरा बाई ने अपने गुरु रैदास का वर्णन अपनी अनेक काव्य कृतियों मे किया, गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी, चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी। चित्तौड़ के किले में मीरा बाई जिस मंदिर में कृष्ण भक्ति किया करती थी उसी मंदिर के ठीक सामने संत रैदास की भव्य छतरी बनी हुई है।

रैदास के बारे में एक रोचक प्रसंग हैं, पंचगंगा घाट के प्रसिद्ध संत स्वामी रामानन्द का शिष्य बनने की इच्छा भक्त रैदास के मन में जागी तो स्वामी रामानन्द ने इसे तुरंत स्वीकार कर लिया। भक्त रैदास ने कहा कि हम चमार हैं तो स्वामी रामानन्द ने कहा कि प्रभु के यहां कोई छोटा या बड़ा नहीं होता।

इसके बाद रामानन्द ने रैदास को प्रभुराम की भक्ति करने तथा भजन लिखने का आग्रह किया। भक्तिभाव से पद लिखना, भक्तों के मध्य गाना, किन्तु जूते बनाने का अपना व्यवसाय भी करते रहना, यही उनकी दिनचर्या थी। मुस्लिम आतंक के उस कठिन काल में भी संत रैदास ने सच्ची भक्ति की निर्मल गंगा प्रवाहित कर दी। उन्होंने सैकड़ों भक्ति पदों की रचना की और उन पदों को भाव विभोर होकर गाया।

संत रविदास का प्रेरक जीवन आज के युवाओं को प्रेरित करने जैसा है, वो भी इस समय जब बहुत कुछ पा लेने के बाद भी वे निराशा व तनाव से गुजर रहे हैं। रैदास सीधा जीवन व्यतीत करते थे। अपना मेहनत की कमाई से खाते और थोड़े में ही संतुष्ट रहते। इतना ही नहीं सुख और दुःख में अपनी मन:स्थिति को संतुलित रखने की भी उनमें भरपूर कला थी। साधु-संतों की सेवा करना, दीनहीन से प्रेम करना उनके स्वाभाविक गुण थे।