28 मई 1857 को नसीराबाद में बजा था आजादी की क्रांति का बिगुल

वीर सावरकर की जन्म जयंती
नसीराबाद। भारत की आजादी के लिए क्रांति का बिगुल 28 मई 1857 को नसीराबाद में बजा जो इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में राजपूताना (अब राजस्थान) में सन 1857 में नसीराबाद छावनी के वीर सैनिकों ने जो अग्रणी भूमिका निभाई उससे इस नगर का ही नहीं वरन समूचे राजस्थान वासियों का मस्तक गौरव से ऊंचा हुआ है। इतना ही नहीं महान क्रांतिकारी दामोदर वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक के स्वतंत्रता संग्राम की गौरवमई गाथा में इस नगर को नमन भी किया है।

यद्यपि स्वाधीनता का महासमर पूरी एक शताब्दी तक समूचे देश में लड़ा गया उसका प्रथम विस्पोट 1857 के शंखनाद के रूप में हुआ। अंग्रेजों के विरुद्ध इस विद्रोह में अनेक राजाओं महाराजाओं तथा सामंतों द्वारा अंग्रेजी सेना का पूरा साथ दिया गया तब राजपूताना में 18 देशी रियासतें, अजमेर का ब्रिटिश जिला और नीमच की छावनी शामिल थी यह गवर्नर जनरल के एजेंट पी लॉरेंस के प्रशासनाधीन था। उदयपुर जयपुर जोधपुर भरतपुर और कोटा इन पांच प्रमुख रियासतों में पोलिटिकल एजेंट थे जो एजी के मातहती में सर्वोच्च सेना का प्रतिनिधित्व करते थे।

नसीराबाद, नीमच, देवली और एरिनपुरा में फौजी मुकाम थे यहां की सभी फौजी टुकड़ियों में देसी सिपाही थे। ब्रिटिश अधिकारियों की अधीनता में दो स्थानीय सैनिक दल ब्यावर एवं खेरवाड़ा में रखे गए थे जिनमें भील व मेर जाति के लोग थे। राजपूताने में 5000 देसी सिपाही थे किंतु आबू में कुछ एक को छोड़कर उनमें कोई गोरा सिपाही नहीं था।

भारतीय और ब्रिटिश सैनिकों में भेदभाव पूर्ण नीति व भारतीय सैनिकों के धर्म प्रहार 1857 के विप्लव के कारण रहे। उस समय अंग्रेजी सैनिकों व देसी पहियों के वेतन में 7 गुना अंतर था जिससे अंग्रेजी सिपाही शान शौकत से रहते थे तथा पैसे को पानी की तरह बहाते थे। इस क्रांति का तत्कालीन कारण एनफील्ड का आविष्कार था। इसमें गाय और सुअर की चर्बी काम में आती थी। इसका प्रयोग भारत में जनवरी अट्ठारह सौ सत्तावन में किया गया।

यह विशेष प्रकार का कारतूस था उसे काम में लेने के लिए कारतूस की टोपी को मुंह से काटना पड़ता था जिस पर चर्बी लगी हुई होती थी। दमदम स्थित शस्त्रागार में सिपाहियों को यह पता चला तो उनको लगा कि अंग्रेज भारतीयों को धर्म भ्रष्ट कर इसाई बनाना चाहते हैं।

नसीराबाद इतिहास के जानकार विष्णु प्रकाश जिंदल ने बताया कि उन दिनों नगर के बाजारों व छावनी में संदेशवाहक साधु का भेष बनाकर कुछ फकीर भी जासूस के रूप में आए। उनके द्वारा चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग प्रसारित होने से अफवाहों का बाजार गर्म होने लगा। सरकार ने ऐसी अफवाहों पर ध्यान न देने की लोगों से अपील की परंतु शीघ्र ही नई अफवाह उड़ी की सिपाहियों को खाने के आटे में हड्डियों का चूरा मिलाकर दिया जा रहा है जिससे सेना में उत्तेजना फैल गई।

उस समय नसीराबाद में दो रेजिमेंट थी भारतीय तोपखाना टुकड़ी एवं फर्स्ट बम्बई लांसर के सैनिक। इससे पूर्व भारत की मेरठ छावनी में 10 मई 1857 को अंग्रेज सत्ता के खिलाफ विद्रोह भड़क चुका था तब राजपूताने की देसी सेना विद्रोह के समाचार सुनती थी। अंग्रेज विद्रोह की बात से भयभीत थे। उन्होंने मुंबई के उन सैनिकों से दस्त लगवाना शुरू किया जो उनके विश्वासपात्र समझे जाते थे और उनसे तोंपे तैयार करवाई।

सैनिकों ने सोचा कि भारतीयों को कुचलने के लिए यह तोप काम में लाई जाएगी। फिर एजी ने बंगाल इन्फेंट्री जो अजमेर में थी उसे नसीराबाद भेजा। धीरे-धीरे सैनिकों के मन में अविश्वास की भावना बढ़ती गई और 23 मई 1857 को देशी नरेशों को पत्र लिखकर राजपूताना के एजेंट गवर्नर जनरल पैट्रिक लॉरेंस ने उनको हिदायत दी कि वे अपने-अपने राज्य में शांति बनाए रखें तथा अपने यहां विद्रोहियों को शरण ना दें।

27 मई सन 1857 को बंगाल नेटिव इन्फेंट्री का सिपाही बख्तावर सिंह अंग्रेज अधिकारी प्रिचार्ड के पास आया और पूछा क्या यह सत्य है कि आप लॉरेंस ने मिलकर यूरोपियन सेना बुलाई है। उसने कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया। इसी कारण 28 मई 1857 को नसीराबाद छावनी में विद्रोह हो गया। नसीराबाद में भारतीय सेना को नियंत्रण में रखने के लिए यूरोपियन सेना को बुलाया गया था जिसके बारे में प्रत्यक्ष रुप से किसी को भी पता नहीं था परंतु इसकी सूचना के बाहर आने से सैनिकों में उत्तेजना फैल गई और इस छावनी की स्थिति तब बद से बदतर होने लगी थी।

आखिर 28 मई 1857 को करीब 3 बजे ब्रिटिश सेना के भारतीय दस्ते के सैनिकों ने विद्रोह का झंडा गाड़कर राजस्थान में क्रांति का बिगुल बजा दिया। नसीराबाद इतिहास के अध्येता विष्णु प्रकाश जिंदल ने बताया कि तोपखाना सैनिकों को विद्रोहियों ने अपनी और मिलाकर तो खाने पर अधिकार कर लिया। सैनिकों ने विद्रोह तो कर दिया पर फर्स्ट रेजीमेंट डांसर ने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। उन्होंने ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों का आदेश गोली चलाने का माना तो सही परंतु हवा में गोली चलाकर, जबकि लाइट व ग्रेनेडियर कंपनी ने तो गोली चलाने से ही इनकार कर दिया।

विद्रोही तोपों से पहला गोला चलने के साथ ही लांसर्स ने सैनिकों की कतारें भंग कर दी। सैनिक टुकड़ियों बिखर गई। जो लोग विद्रोही सैनिकों को समझाने के लिए आगे बढ़े या तो वे मारे गए या फिर घायल हुए। एक अंग्रेज अधिकारी कारनीट न्यूबरी के दो टुकड़े टुकड़े कर दिए गए और कर्नल पैनी घटनास्थल पर ही मारा गया। ब्रिगेडियर मेंकल अपने यूरोपियन सैनिकों के साथ पीछे हटने को मजबूर हो गया। एक अन्य ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन की भी मौत हो गई और दो कप्तान स्पोटिश वुड हार्डी और कप्तान लॉक गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके साथ ही नसीराबाद छावनी विप्लवकरियों के हाथों में चली गई।

विद्रोहियों ने अंग्रेज अधिकारियों के घरों को लूटा और जला दिया। बचे अंग्रेज अधिकारी जान बचाकर भागे। उनके भागते ही यहां अराजकता फैल गई छावनी के घरों में आग लगा दी गई तथा सरकारी तिजोरियों को तोड़कर विद्रोहियों ने प्राप्त धन को अपने वेतन के रूप में बांट लिया। विद्रोही सैनिक दिल्ली रवाना हो गए जहां उन्होंने पीछे से अंग्रेज पलटन पर आक्रमण कर दिया जो कई दिनों तक दिल्ली में डेरा डाले हुए थे।

नसीराबाद इतिहास अध्येता विष्णु प्रकाश जिंदल ने बताया कि राजपूताना में विद्रोह का दूसरा स्थान नीमच छावनी (जो अब मध्यप्रदेश में है) बना। राजस्थान में हुए सैन्य विद्रोह के बिगुल ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी। नसीराबाद के विप्लव का समाचार 3 जून 1857 को नीमच पहुंचा तो उसी दिन रात्रि को 11 बजे नीमच छावनी में विद्रोह हो गया और 10 जुलाई 1857 को यूरोपियन सेना की प्रथम टुकड़ी को नसीराबाद से नीमच भेजा गया। बाद में अंग्रेजों की कूटनीति से क्रांति की इस आग को बुझा दिया गया।

इस आजादी की क्रांति के साथ यह भी अदभुत संयोग जुड़ा हुआ है कि देश की आजादी के लिए अंडमान निकोबार जेल के काले पानी की सजा पाने वाले महान क्रांतिकारी वीर सावरकर का जन्म दिवस भी 28 मई को ही है। नसीराबाद में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के वीरों की यादगार में शताब्दी वर्ष 1957 में राजस्थान सरकार द्वारा शहीद स्मारक का निर्माण करवाया गया जहां आज भी समय-समय पर लोग शहीदों को पुष्पांजलि अर्पित करते हैं।