कृष्ण जन्माष्टमी : भगवान श्रीविष्णु का अवतार हैं श्रीकृष्ण

कृष्ण जन्माष्टमी के दिन भगवान श्री विष्णु ने भगवान कृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। वह दिन था भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी। भगवान कृष्ण का जन्म मध्यरात्रि के समय हुआ, जब रोहिणी नक्षत्र था और चंद्र वृषभ राशि में था। इस दिन श्रीकृष्ण का तत्त्व पृथ्वी पर नित्य की तुलना में 1000 गुना अधिक कार्यरत होता है। इसलिए इस दिन कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव मनाना, ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।’ का जाप करना तथा भगवान कृष्ण की अन्य उपासना भावपूर्ण रूप से करना, इससे हमें उसका अधिक लाभ मिलता है।

पूजा, आरती, भजन इत्यादि उपासना पद्धतियों से देवता के तत्त्व का लाभ मिलता है; परंतु इन सर्व उपासनाओं काे स्थल, काल की मर्यादा होती है। देवता के तत्त्व का लाभ निरंतर प्राप्त होने के लिए, देवता की उपासना भी निरंतर करनी चाहिए। ऐसी निरंतर उपासना एक ही है और वह है नामजप। कलियुग में नामजप सरल एवं सर्वोत्तम उपासना है। रात्रि को भगवान कृष्ण के जन्म के समय पूजाविधि करने के उपरांत, थोडे समय के लिए भग‍वान कृष्ण के नाम का जाप करें ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।’

श्रीकृष्ण का अवतार होना

एक बार गोपों ने यशोदा को बताया कि श्रीकृष्ण ने मिट्टी खाई है। उस पर यशोदा ने श्रीकृष्ण को मुंह खोलने के लिए कहा एवं श्रीकृष्ण के मुंह खोलते ही यशोदा को उनके मुंह में विश्‍वरूप के दर्शन हुए। इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि अवतार बचपन से ही कार्य करते हैं। श्रीकृष्ण ने शरद ऋतु की एक चांदनी रात में गोकुल में गोपियों के साथ रासक्रीडा रचाई। उस समय गोपियों को ब्रह्मानंद की अनुभूति हुई।

श्रीकृष्ण को पकडने के लिए जरासंध ने अठारह बार मथुरा को घेरा। एक व्यक्ति को पकडने के लिए इतनी बार प्रयत्नों का विश्‍व में अन्य कोई उदाहरण नहीं है। कंस नौकाओं में 280 हाथियों को यमुना नदी के पार ले आया। तीन महीने मथुरा को घेरे रहने पर भी श्रीकृष्ण नहीं मिले। कंस, श्रीकृष्ण को ढूंढ नहीं पाया; क्योंकि प्रतिदिन वे एक सदन में नहीं रहते थे। एक सहस्र बालकों ने श्रीकृष्ण समान मोर पंख पहन लिए। कंस के सैनिकों ने उन्हें मारा-पीटा, फिर भी उन बालकों ने भेद नहीं खोला कि वास्तव में श्रीकृष्ण कौन हैं। इससे स्पष्ट होता है कि श्रीकृष्ण अवतार ही हैं।

महान तत्वज्ञाता होना

श्रीकृष्ण द्वारा बताया हुआ तत्त्वज्ञान गीता में दिया है। उन्होंने अपने तत्त्वज्ञान में प्रवृत्ति (सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति) एवं निवृत्ति (सांसारिक विषयों के प्रति विरक्ति) के बीच योग्य संयोजन दर्शाया है। वैदिक कर्माभिमानियों की कर्म-निष्ठा, सांख्यों की ज्ञाननिष्ठा, योगाभिमानियों का चित्त-निरोध और वेदांतियों का संन्यास, इन सर्व धारणाओं को उन्होंने मान्य किया; परंतु अनेक हठधर्मियों के मतों का उन्होंने निषेध किया।

प्रत्येक मत को उचित महत्त्व देकर, सबका समन्वय कर, उन्होंने उनका उपयोग अपने नए कर्तव्य सिद्धांत अर्थात निरपेक्ष, फलेच्छारहित कर्म के लिए किया। मनुष्य को अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए, इस सूत्र का प्रतिपादन उन्होंने मुख्यतः श्रीमद्भगवद्गीता में किया है।

धर्मशास्त्र बताता है कि हमारा कर्तव्य क्या है, परंतु उसे किस प्रकार करना चाहिए, यह श्रीकृष्ण ने उत्तम प्रकार से समझाया। प्रवृत्ति को निवृत्ति में या निवृत्ति को प्रवृत्ति में कैसे परिवर्तित करना चाहिए तथा कर्तव्य-पालन की प्रक्रिया उन्होंने अर्जुन को गीता में बताई।

आरोपों का खंडन : धर्मद्रोही यह आरोप लगते हैं कि रासलीला श्रीकृष्ण की काम क्रीड़ा है, इसका खंडन

1. रासलीला के समय श्रीकृष्ण की आयु मात्र 8 वर्ष थी। गोपियां सहस्रों थीं। इतनी सारी स्त्रियों से एक साथ संबंध रखना किसी के लिए संभव नहीं है।
2. सप्तदेवता कामदेव के अधीन नहीं होते। कामदेव ने जब शिवजी का ध्यान भंग किया, तो उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसे भस्म कर दिया।
3. श्रीकृष्ण स्वयं बताते हैं, मैं साक्षात ईश्‍वर हूं, इसलिए मुझमें वासनाएं होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। इसके विपरीत, मुझमें वासना-विनाश का अपूर्व सामर्थ्य है; इसलिए रासलीला पूर्णतः आध्यात्मिक स्तर पर हो रही थी। रासलीला के कारण गोपियों की वासना नष्ट हो गई और वे भी मेरे समान शुद्ध एवं पवित्र हो गईं।

संदर्भ : सनातन का लघुग्रंथ श्रीकृष्ण

कृतिका खत्री,
सनातन संस्था, दिल्ली
संपर्क – 99902 27769