डेथ वारंट ! वरना मोदी सरकार को कभी भी माफ नहीं करेगी अरावली

सन्तोष खाचरियावास
अजमेर। सदियों का कालचक्र देख चुकी अरावली पर्वतमाला अब राजनीति के कुचक्र में फंस गई है। सुप्रीम कोर्ट में उसका मुकद्दर लिखा जा चुका है। मोदी सरकार के हलफनामे को आधार बनाकर शीर्ष अदालत ने अरावली की नई आधिकारिक परिभाषा को मंजूरी दे दी। कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी के शब्दों में कहें तो- अरावली का डेथ वारंट जारी हो चुका है।

यह सब मुमकिन हुआ है मोदी राज में, क्योंकि मोदी है तो मुमकिन है। इस परिभाषा के खिलाफ पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश का बयान भी आ चुका है… लेकिन मोदी सरकार के पर्यावरण मंत्री एवं इसी अरावली की छत्रछाया में पले-बढ़े भूपेंद्र यादव ने अब इस मुद्दे पर मौन नहीं तोड़ा है।

दुनिया की सबसे प्राचीन अरावली पर्वतमाला का अस्तित्व बचाने को लेकर चिंतित मोदी सरकार ने इसके संरक्षण के लिए नया क्राइटेरिया तय करने का हलफनामा दिया और सुप्रीम कोर्ट ने उस पर मुहर लगा दी। अब 100 मीटर से ऊंची पहाड़ी ही अरावली पर्वतमाला का हिस्सा मानी जाएगी। बस, …इसी एक लाइन ने पर्यावरण प्रेमियों की नींद उड़ा रखी है।

विशेषज्ञों के मुताबिक फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) में खुलासा हुआ कि कुल 12 हजार 81 पहाड़ियों की मैपिंग की गई और इनमें से महज 1 हजार 48 पहाड़ियों को 100 मीटर से ऊंची माना गया… यानी सिर्फ 8.7 प्रतिशत पहाड़ियां अरावली कहलाने का मापदंड पूरा करती हैं, विशेषज्ञों को आशंका है कि बाकी पहाड़ियों को खनन माफियाओं के हवाले करने का रास्ता खुद मोदी सरकार ने खोल दिया है।

मोदीजी खुद राजनीति के साथ साथ धर्म, आध्यात्म प्रकृति के भी मर्मज्ञ हैं। पहाड़ों-कंदराओं से उनका पुराना नाता रहा है, ऐसा वे खुद कई बार कह चुके हैं-लेकिन अब कंदराओं का क्रंदन मोदी सरकार के कानों तक नहीं पहुंच रहा है।

दो अरब पचास करोड़ साल पुरानी अरावली पर्वतमाला 692 किलोमीटर की लम्बाई में गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली की ढाल बनकर खड़ी रही। रेगिस्तान को रोकने के साथ ही वाटर रिचार्ज का अहम स्रोत है। हजारों तरह की वनस्पति और जीव जंतुओं की प्रजातियों का ठिकाना है। यह पर्वतमाला गुजरात के पालनपुर से लेकर दिल्ली के राष्ट्रपति भवन तक फैली है। राष्ट्रपति भवन जिस रायसीना हिल पर बना है, वह अरावली का ही हिस्सा है। इसी दिल्ली ने अरावली की पेशानी पर परेशानी लिख दी है।

संयोग यह भी है कि अरावली पर्वतमाला जिन चार राज्यों में स्थित है, वर्तमान में उन चारों में भाजपा की सरकारें हैं। लेकिन अवैध खनन नहीं रोक पा रही हैं। पर्यावरण प्रेमियों का मानना है कि अरावली पर्वतमाला का फुटप्रिंट कानूनन कम कर देने से आने वाले समय में इकोलॉजिकल चेंजेज देखने को मिलेंगे।

केन्द्र सरकार की मंशा और पर्यावरण प्रेमियों की चिंता के बीच द्वंदयुद्ध जोरों पर है। इसे लेकर मीडिया में प्रायोजित शांति है लेकिन सोशल मीडिया पर क्रांति है। लाखों लोग अरावली को नए क्राइटेरिया में सीमित करने पर विरोध जता रहे हैं।

एकाध राजनीति पार्टियां भी इस बारे में आवाज उठा रही हैं जबकि कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी इसे जन आंदोलन बनाने की केवल बयानों से काम चला रही है। इसकी वजह भी साफ है- ज्यादातर खनन माफिया बड़ी पार्टियों की गोदी में ही फलफूल रहे हैं…। बरसों से जगह-जगह अरावली की पहाड़ियों में अवैध खनन हो रहा है। ना कांग्रेस सरकार इसे रोक पाई ना भाजपा सरकार। अब जब औपचारिक रूप से अरावली को चट करने की बारी आएगी तो सभी को अपना-अपना हिस्सा मिल जाएगा!!!

सरकार अगर सच्ची है.. उसकी नीयत अगर साफ है… और उसके प्रयास अगर ईमानदार हैं तो उसे पर्यावरण प्रेमियों को विश्वास दिलाना होगा कि अब से अरावली का एक पत्थर भी नहीं हिलेगा,…क्या मोदी सरकार यह यकीं दिलाने का माद्दा रखती है…???