शिमला। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने आज एक ऐतिहासिक और दूरगामी परिणाम देने वाले फैसले में हिमाचल प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम, 1954 की धारा 163-ए को रद्द कर दिया। यह प्रावधान सरकारी भूमि पर अतिक्रमणों को नियमित करने का अधिकार देता था।
न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और न्यायमूर्ति बिपिन चंद्र नेगी की खंडपीठ ने इस प्रावधान को असंवैधानिक करार दिया और राज्य को उन सभी अतिक्रमणों को हटाने का निर्देश दिया जिन्हें अब निरस्त कर दी गई धारा के तहत नियमित किया जाना था।
यह फैसला 23 साल पहले दायर एक रिट याचिका, पूनम गुप्ता बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य, के जवाब में आया। इसमें धारा 163-ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। यह प्रावधान मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पहले कार्यकाल के दौरान 2002 में लागू किया गया था, जिसने राज्य सरकार को सरकारी भूमि पर अतिक्रमणों के नियमितीकरण के लिए नियम बनाने की अनुमति दी थी, जिसका उद्देश्य छोटे और सीमांत किसानों को लाभ पहुंचाना था।
हालांकि, अदालत ने कहा कि इस विधायी पैंतरेबाज़ी ने अवैधता को वैध बनाने का प्रयास किया और यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। अदालत ने कहा कि अवैधता में समानता का दावा नहीं किया जा सकता और आगे कहा कि ये प्रावधान वास्तव में बेईमान व्यक्तियों के एक वर्ग के लिए कानून है।
न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जानबूझकर और स्वेच्छा से किए गए अतिक्रमण भारतीय दंड संहिता की धारा 441 के तहत आपराधिक अतिक्रमण के समान हैं और कहा कि ऐसे उल्लंघनों को नियमित नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व निर्णयों का हवाला दिया, जो विकट परिस्थितियों के कारण अनैच्छिक अतिक्रमण और जानबूझकर, योजनाबद्ध तरीके से भूमि हड़पने के बीच अंतर करते हैं।
न्यायालय ने सरकारी रिकॉर्ड का हवाला देते हुए बताया कि 1.23 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन पर अतिक्रमण किया गया था और नियमितीकरण योजना के तहत 1.67 लाख आवेदन प्राप्त हुए थे। न्यायालय ने कहा कि इससे बड़े पैमाने पर ज़मीन हड़पने, बेईमानी और पर्यावरणीय एवं कानूनी सुरक्षा उपायों की पूरी तरह से अवहेलना को बढ़ावा मिला।
सार्वजनिक विश्वास के सिद्धांत और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए नागरिकों और राज्य दोनों के संवैधानिक कर्तव्य का हवाला देते हुए, पीठ ने टिप्पणी की, अतिक्रमण हटाने और सरकारी ज़मीन की रक्षा करने में विफलता शासन की विफलता है। यह बेईमानी को बढ़ावा देती है और क़ानून के शासन को कमज़ोर करती है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जंगल, नदियाँ, पहाड़ और ज़मीन सहित सार्वजनिक संसाधन जनता के हैं और इन्हें न केवल वर्तमान के लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षित रखा जाना चाहिए।