Home Entertainment Bollywood भारतीय सिनेमा जगत के जनक थे दादा साहब फाल्के

भारतीय सिनेमा जगत के जनक थे दादा साहब फाल्के

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भारतीय सिनेमा जगत के जनक थे दादा साहब फाल्के
birth anniversary : Dadasaheb Phalke Was father of Indian cinema
birth anniversary : Dadasaheb Phalke Was father of Indian cinema
birth anniversary : Dadasaheb Phalke Was father of Indian cinema

मुंबई। वर्ष 1910 में मुंबई में फिल्म’द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों की भीड़ में एक ऐसा शख्स भी था जिसे फिल्म देखने के बाद अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया था और उसने लगभग दो महीने के अंदर शहर में प्रदर्शित सारी फिल्में देख डाली और निश्चय कर लिया वह फिल्म निर्माण ही करेगा। यह शख्स और कोई नही भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के थे।

दादा साहब फाल्के का असली नाम धुंधिराज गोविन्द फाल्के था। उनका जन्म महाराष्ट्र के नासिक के निकट त्रयबकेश्वर में 30 अप्रेल 1870 में हुआ था। उनके पिता दाजी शास्त्री फाल्के संस्कृत के विद्धान थे। कुछ समय के बाद बेहतर जिंदगी की तलाश में उनका परिवार मुंबई आ गया।

बचपन के दिनों से ही दादा साहब फाल्के का रूझान कला की ओर था और वह इसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहते थे। वर्ष 1885 में उन्होंने जेजे कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला ले लिया। उन्होंने बड़ोदा के मशहूर कलाभवन में भी कला की शिक्षा हासिल की। इसके बाद उन्होंने नाटक कंपनी में चित्रकार के रूप में काम किया। वर्ष 1903 में वह पुरात्तव विभाग में फोटोग्राफर के तौर पर काम करने लगे।

कुछ समय बाद दादा साहब फाल्के का मन फोटोग्राफी में नहीं लगा और उन्होंने निश्चय किया कि वह बतौर फिल्मकार अपना कैरियर बनाएंगे। अपने इसी सपने को साकार करने के लिए वर्ष 1912 में वह अपने दोस्त से रुपए लेकर लंदन चले गए। लगभग दो सप्ताह तक लंदन में फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखने के बाद वह फिल्म निर्माण से जुड़े उपकरण खरीदने के बाद मुंबई लौट आए।

बंबई (अब मुंबई) आने के बाद दादा साहब ने ‘फाल्के फिल्म कंपनीÓ की स्थापना की और उसके बैनर तले’राजा हरिश्चंद्र’ नामक फिल्म बनाने का निश्चय किया। इसके लिए फाइनेंसर की तलाश में जुट गए। इस दौरान उनकी मुलाकात फोटोग्राफी उपकरण के डीलर यशवंत नाडकर्णी से हुई जो दादा साहब फाल्के से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने उनकी फिल्म का फाइनेंसर बनना स्वीकार कर लिया।

फिल्म निर्माण के क्रम में दादा साहब फाल्के को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । दादा साहब फाल्के चाहते थे कि फिल्म में अभिनेत्री का किरदार कोई महिला ही निभाए लेकिन उन दिनों फिल्मों में महिलाओं का फिल्म में काम करना बुरी बात समझी जाती थी।

उन्होंने रेड लाइट एरिया में भी खोजबीन की लेकिन कोई भी महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं हुई। बाद में उनकी खोज एक रेस्टोरेंट में बावर्ची के रूप में काम करने वाले व्यक्ति सालुंके पर जाकर पूरी हुई।

दादा साहब फाल्के भारतीय दर्शकों को अपनी फिल्म के जरिये कुछ नया देना चाहते थे। वह फिल्म निर्माण में कोई कसर नही छोडऩा चाहते थे इसलिएं फिल्म में निर्देशन के अलावा उसके लेखन, छायांकन, संपादन और चित्रांकन की सारी जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली। यहां तक कि फिल्म के वितरण का काम भी उन्होंने ही किया।

फिल्म के निर्माण के दौरान दादा साहब की पत्नी ने उनकी काफी सहायता की। इस दौरान वह फिल्म में काम करने वाले लगभग 500 लोगों के लिए खुद खाना बनाती और उनके कपड़े धोती थी। फिल्म के निर्माण में लगभग 15000 रूपए लगे जो उन दिनों काफी बड़ी रकम हुआ करती थी। आखिरकार वह दिन आ ही गया जब फिल्म का प्रदर्शन होना था। तीन मई 1913 में मुंबई के कोरनेशन सिनेमा में फिल्म पहली बार दिखाई गई। लगभग 40 मिनट की इस फिल्म को दर्शकों का अपार सर्मथन मिला। फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई।

फिल्म’राजा हरिश्चंद्र’ की अपार सफलता के बाद दादा साहब फाल्के नासिक आ गए और फिल्म’मोहिनी भस्मासुर’ का निर्माण करने लगे। फिल्म के निर्माण में लगभग तीन महीने लगे। मोहिनी भस्मासुर का फिल्म जगत के इतिहास में काफी महत्व है क्योंकि इसी फिल्म से दुर्गा गोखले और कमला गोखले जैसी अभिनेत्रियों को भारतीय फिल्म जगत की पहली महिला अभिनेत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। यह फिल्म लगभग 3245 फीट लंबी थी जिसमें उन्होंने पहली बार ट्रिक फोटोग्राफी का प्रयोग किया था। दादा साहब फाल्के की अगली फिल्म’सत्यवान-सावित्री’ वर्ष 1914 में प्रदर्शित हुई।

फिल्म सत्यवान -सावित्री की सफलता के बाद दादा साहब की याति पूरे देश में फैल गई और दर्शक उनकी फिल्म देखने के लिए तत्पर होने लगे। दादा साहब अपनी फिल्म हिंदुस्तान के हर दर्शक को दिखाने चाहते थे अत: उन्होंने निश्चय किया कि वह अपनी फिल्म के लगभग 20 प्रिट अवश्य तैयार करेंगे जिससे फिल्म ज्यादा दर्शकों को दिखाई जा सके।

वर्ष 1914 में दादा साहब फाल्के को एक बार फिर से लंदन जाने का मौका मिला। वहां उन्हें कई प्रस्ताव मिले कि वह फिल्म निर्माण का काम लंदन में ही रहकर पूरा करे लेकिन दादा साहब फाल्के ने उन सारे प्रस्तावों को यह कहकर ठुकरा दिया कि वह भारतीय है और भारत में रहकर फिल्म का निर्माण करेंगे।

इसके बाद दादा साहब ने लंका दहन 1914, श्री कृष्ण जन्म 1918 और कालिया मर्दन 1919 जैसी सफल धार्मिक फिल्मों का निर्देशन किया। इन फिल्मों का सुरूर दर्शकों के सिर चढ़कर बोला। इन फिल्मों को देखते समय लोग भक्ति भावना में डूब जाते थे। फिल्म लंका दहन के प्रदर्शन के दौरान श्रीराम और कालिया मर्दन के प्रदर्शन के दौरान श्री कृष्ण जब पर्दे पर अवतरित होते थे तो सारे दर्शक उन्हें दंडवत प्रणाम करने लगते।

वर्ष 1917 में दादा साहब फाल्के कंपनी का विलय’हिंदुस्तान फिल्स कंपनीÓ में हो गया। इसके बाद दादा साहब फाल्के नासिक आ गए और उन्होंने एक स्टूडियों की स्थापना की। फिल्म स्टूडियो के अलावा उन्होंने वहां अपने कलाकारों के एक साथ रहने के लिए भवन की स्थापना की ताकि वे एक साथ संयुक्त परिवार की तरह रह सके।

1920 के दशक में दर्शकों का रूझान धार्मिक फिल्मों से हटकर एक्शन फिल्मों की ओर हो गया जिससे दादा साहब फाल्के को गहरा सदमा पहुंचा। फिल्मों में व्यावसायिकता को हावी होता देखकर अंतत: उन्होंने वर्ष 1928 में फिल्म इंडस्ट्री से संन्यास ले लिया। हालांकि वर्ष 1931 में प्रदर्शित फिल्म सेतुबंधम के जरिये उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में वापसी की कोशिश की लेकिन फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई।

वर्ष 1970 में दादा साहब फाल्के की जन्म शताब्दी के अवसर पर भारत सरकार ने फिल्म के क्षेत्र के उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए उनके नाम पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार की शुरूआत की। फिल्म अभिनेत्री और निमात्री देविका रानी फिल्म जगत का यह सर्वोंच्च सम्मान पाने वाली पहली कलाकार थी।

दादा साहब फाल्के ने अपने तीन दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 100 फिल्मों का निर्देशन किया। वर्ष 1937 में प्रदर्शित फिल्म ‘गंगावतारम’ दादा साहब फाल्के के सिने कैरियर की अंतिम फिल्म साबित हुई। फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई जिससे दादा साहब फाल्के को गहरा सदमा लगा और उन्होंने सदा के लिए फिल्म निर्माण छोड दिया।

लगभग तीन दशक तक अपनी फिल्मों के जरिये दर्शको को मंत्रमुग्ध करने वाले महान फिल्मकार दादा साहब बड़ी ही खामोशी के साथ नासिक में 16 फरवरी 1944 को इस दुनिया से सदा के लिए विदा हो गए।