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खत्म् नहीं होती राजनीति में नायक की तलाश

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खत्म् नहीं होती राजनीति में नायक की तलाश

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नई दिल्ली। आखिर ऐसा क्या हुआ कि 2014 में लोकसभा चुनावों में जनता ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी को सिर पर चढा लिया। ऐसा क्या हुआ कि किरण बेदी की ढाल में इन्हीं प्रधानमंत्री के नाम पर चुनाव मैदान में उतरी भाजपा को दिल्लीवासियों ने कांग्रेस के समकक्ष पहुंचा दिया।

जवाब एक ही है। जनता को उनका नायक चाहिए। राजनीति में नायकवाद कभी मरा नहीं और न ही कभी मरेगा। 1972 मंे इंदिरा गांधी नायिका के रूप में नजर आई, 1999 में अटल बिहारी बाजपयी तो 2014 में नरेन्द्र मोदी और 2015 के दिल्ली चुनावों में अरविंद केजरीवाल के रूप में नायकवाद की जीत हुई।
राजनीति में नायकवाद मरता नहीं। अपनी दैनिक समस्याओं से जूझता हुआ आम आदमी जब वोट देने जाता है तो वो अपने इस एक वोट से ऐसा  नायक चुनता है जो पांच साल उसकी समस्याओं को दूर करेगा। उसकी समस्याएं और आकांक्षाएं एवरेस्ट जितनी उंची भी नहीं है। पानी, बिजली, चिकित्सा, समय और निर्बाध रूप से किये जाने वाला सरकारी काम, सामाजिक सुरक्षा और उसकी और से दिये जाने वाले टैक्स की सही तरह से इस्तेमाल। इतिहास गवाह है कि जिस राजनेता ने यह सपना पूरा करने का वादा कर दिया वह जनता का नायक हो जाता है। नायकवाद का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। खलनायक का अंत। बुराई का अंत। यही वह चाहता भी है और शायद मोदी के नायकवाद ने यही विश्वास जनता में जताया था, जिसके पूरा नहीं होने पर जनता ने उन्हें दिल्ली में धूल चटा दी।
यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि नरेन्द्र मोदी का नायकवाद का अभ्युदय कांग्रेस के खलनायकवाद की देन थी। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी खलनायक थे। जनता ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने वोट के अंशदान से कांग्रेस के भ्रष्टाचार और नेताओं के अहंकार के खलनायक के अंत के लिए नरेन्द्र मोदी के रूप में नायक को जन्म दिया। मोदी ने भी चुनाव प्रचार में खुदको नायक के रूप में पेश करते हुये भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के अंत तथा लोगों को आधरभूत सुविधाएं सहजता से मुहैया करवाने का विश्वास दिलवाया। राजनीतिक निर्वात की स्थिति में जनता को उस दौरान कांग्रेस के अंत के लिए कोई और नायक नजर नहीं आया तो उन्होंने नरेन्द्र मोदी में अपना नायक देखा और मुक्त हस्त से वोट देकर उन्हें लोकसभा में निर्बाध काम करने के लिए स्पष्ट बहुमत दे दिया।

आठ महीने बाद दिल्ली चुनाव में इस नायक के अंत के साथ केजरीवाल के रूप में नए नायक का अभ्युदय इस बात का द्योतक है कि 2014 में चुना गया नायक भी खलनायक को बख्शते हुए खुद अपने अहंकार की सल्तनत खडी करने में मशगूल हो गया। जनता को लगा कि 2014 का नायक जिस विकास और हित की बात कर रहा था, सत्ता में आने के बाद वह विकास और हित आम आदमी की बजाय उस विशेष आदमी का करने लगा जो किसी न किसी रूप में देश के संसाधन और देश के सबसे बडे मध्यवर्ग का शोषण करता रहा और उनके अधिकारों को कुचलता रहा।

भ्रष्टाचार को खतम करने के लिए लोकपाल, लोक सेवाओं की गारंटी जैसे जनता को राहत देने वाले त्वरित और स्फूर्त निर्णयों की बजाय किसानों की जमीनों को जबरन छीनने वाले भूमि अधिग्रहण बिल, छोटे से लेकर बडे मिनरल पर आधिपत्य काॅरपोरेटस का आधिपत्य कराने वाले माइनिंग एक्ट जैसे आॅर्डनेंस और आदेशों के पीछे लग गया। भ्रष्टाचार के कम करने की बजाय भ्रष्टाचार के साथ विकास की सोच रखने लगा। भ्रष्टाचार से होने वाले जनधन की लीकेज रोकने की बजाय इस लीकेज की राशि पेट्रोल पर अतिरिक्त कर, एक्साइज डयूटी में बढोतरी और अन्य टैक्सों के रूप में जनता से ही उगाहने लगा। जनता को जब समझ में आया तो उसने दिल्ली चुनावों में लोकपाल, राइट टू रीकाॅल, राइट टू रिजेक्ट, पूर्ण स्वराज, विकास में जनता की भागीदारी, जनता के टैक्स का जनता के हित में उपयोग का दावा करने वाले नए नायक अरविंद केजरीवाल को अपने वोट की ताकत से पैदा कर दिया। इतना स्पष्ट बहुमत दिया कि विधानसभा की पहली बैठक में ही लोकपाल, राइट टू रिकाॅल, राइट टू रिजेक्ट, पूर्ण स्वराज जैसे अपने वायदों को पूरा करके जनता में यह विश्वास जगा सके कि उसके वायदे दिवास्वप्न नहीं हकीकत हैं।

अब यदि केजरीवाल भी नरेन्द्र मोदी की तरह स्पष्ट बहुमत के बाद भी केन्द्र और भाजपा शासित राज्यों में आमजन के बीच खलनायक के रूप में व्याप्त भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, जनता की अनदेखी के खलनायक का अंत नहीं कर पाए जनता फिर एक नए नायक की तलाश में निकल पडेगी। क्योंकि जब तक जनता को उसका नया नायक खलनायक का अंत करने का हथियार बनता नहीं दिखेगा वह नायक की अंतहीन तलाश को खतम नहीं करेगी।

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