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काश! कोई इन आँसूओं के दर्द को समझ पाता!

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काश! कोई इन आँसूओं के दर्द को समझ पाता!
madhya pradesh farmers face hardships, politics
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आँसू तो अन्नदाता की विरासत है। भारतीय किसान का जीवन दुख एंव गम से भरा पड़ा है। ऐसे में यदि कोई किसानों के आँसू पोंछने की बात करे, तो यह झूठी दिलासा से अधिक जान नहीं पड़ता है।

प्राकृतिक आपदा रहे या न रहे, सियासत से लेकर आम आदमी तक किसान दोयम दर्जे के भेदभाव से अलग नहीं हो पाया है। मध्यप्रदेश के सियासतदार एक तरफ किसानों के आँसू पोंछने की बात कह रहे थे, तो दूसरी तरफ 1 अप्रैल तक गेहूँ की सरकारी खरीद ठप्प पड़ी हुई थी।

28 मार्च 2015 तक सहकारी बैंकों की ऋण अदायगी में असफल रहे किसानों पर सहकारी समितियों ने 12 फीसदी का ब्याज लगा दिया है। जिन किसानों ने ब्याज से बचने के लिये गेहूँ को मण्डी में बेचने की कोशिश की, उनका गेहूँ मण्डी में 1200 से लेकर 1250 रूपये प्रति क्विंटल से अधिक नहीं बिक सका है।
मध्यप्रदेश में महीनों पूर्व से प्रदेश सरकार ने अनाज खरीदी की तारीख 15 मार्च घोषित कर रखी थी, लेकिन 30 मार्च तक सहकारी समितियों के पास खरीदने हेतु न तो वारदाना थे, न काँटे लगाये गये थे। और तो और विक्रेता किसानों को एसएमएस तक नहीं भेजे जा सके थे। समझ नहीं आता कि जिस प्रदेश का मुखिया बार-बार स्वयं को किसान का बेटा बताकर किसानों का सच्चा हमदर्द बनने की कोशिश करता हो, वहाँ का प्रशासनिक अमला खेत एवं किसान को लेकर इतना लापरवाह क्यों है?

एक या दो जिला नहीं, बल्कि प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में 30 मार्च तक सरकारी गेहूँ खरीदी सुस्त बनी हुई थी और अब भी खरीदी केंद्रों पर अव्यवस्थाओं का आलम है, जबकि व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी लेने वाला यह वही प्रशासनिक अमला है, जो अचानक ही किसी राजनेता की अगवानी के लिये रातो रात आकाश से तारे भी तोड़ लाया करता है। लेकिन प्रतिवर्ष नियामानुसार आने वाली फसल के लिये प्रदेश में कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है, न कोई तैयारी और न ही कोई जिम्मेदारी।
कारण साफ है कि नौकरशाही की नजरों में किसान अन्नदाता न होकर मात्र एक याचक है। प्रदेश का कृषि विभाग तो ऐसा है कि उसे किसानों की परेशानियों से कोई लेना देना ही नहीं है। ओला-पीड़ित क्षेत्रों में पहुँचे प्रदेश के सियासतदारों ने किसान के पतले, चमकविहीन एवं कम गुणवत्ता के गेहूँ को खरीदने की बात कही थी।

अब हकीकत यह है कि अतिवृष्टि के कारण प्रदेश का गेहूँ कलरहीन होकर सफेद या काला हो चुका हैं। लेकिन इसे खरीदने के लिए सहकारी समितियाँ तैयार नहीं हैं। सोसायटियों में पदस्थ कर्मचारी इसे नहीं खरीदने के पीछे सरकार का वह आदेश बता रहे हैं, जिसमें छ: फीसदी से अधिक रंग उतरी गेहूँ जिन्स को खरीदने से सोसायटियों को मनाही की गई है।

निर्देशों में 6 फीसदी से अधिक कटे माल कम गुणवत्ता युक्त जिन्स को खरीदने से मनाही के स्पष्ट निर्देश है। इस बार उत्पादित 70 फीसदी गेहूँ अतिवर्षा के कारण पूर्णता गुणवता विहीन हो चुका है। लेकिन सवाल यही है कि आखिरकार प्रदेश का किसान इस अनाज को उचित मूल्य पर बेचने कहाँ जाये?
अन्नदाता के लागत मूल्य की भरपाई ही शासन का राजधर्म हुआ करता है। लेकिन मप्र में अब वह हालात हो चुके है कि सिर्फ ओला-पीड़ित किसान ही नहीं, बल्कि सोसायटियो में तुलाई न होने से परेशान किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं।

प्रदेश के ग्वालियर, नीमच, निमाड़, दमोह और सतना में फसल बर्बादी के बाद से लगभग 25 किसानों ने मौत को गले लगा लिया। विदिशा जिले के एक किसान ने सोसायटी पर गेहूॅं न तुलने की वजह से जहर खा लिया है। अब प्रदेश में खड़ी फसलों पर आगजनी की घटनाऐं सामने आने लगी है। 90 फीसदी फसलों में आगजनी का कारण विद्युत लाइनों से शार्ट सर्किट रहा है।

विद्युत कम्पनी ने लाइनों को किसानों के खेतों के ऊपर से गुजार दिया हैै। इसके लिये न तो किसानों से अनुुमति ली जाती है और न ही इन लाइनों से होने वाली दुर्घटनाओं पर विचार किया जाता है, यहाँ तक कि आगजनी से हुये नुकसान पर मुआवजा दिलाने में प्रशासन चुप्पी साध लेता है। जबकि फसल क्षति की सम्पूर्ण जिम्मेदारी विद्युत कम्पनी की होने से क्षति का शत फीसदी भुगतान विद्युत कम्पनी द्वारा किया जाना चाहिये।
अन्नदाता के दर्द भले दिल को दिलासा देते हुए उनके आँसूे पोंछने के लिये पूरे देश में किसानों को कम प्रीमियम वाले सामूहिक जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा एवं मेडी क्लेम जैसी किसी भी योजना पर सरकार ने अब तक ध्यान नहीं दिया है, जबकि यह योजनाएँ किसानों को स्वाभिमान के साथ जीने का सहारा हो सकती हैं।

किसान के आँसू पोंछने की बात करने वाले रियासतदार बर्बाद फसल पर किसानों को बेटी ब्याहने पच्चीस हजार रूपये देने या बिजली बिल माफ करने या खाने के बास्ते सस्ता गेहूँ देेने की बात करते हैं, लेकिन यह सभी घोषणाएँ अन्नदाता के स्वाभिमान को तार-तार करके उसे भिखारी की श्रेणी में खड़ा कर देती हैं। प्रदेश सहित केन्द्र सरकार को नौकरशाहो एंव बीमा कम्पनियों से पूछना चाहिये की गत वर्ष हुई फसल क्षति की राशि वितरण में बिलम्व क्यों?
सरकारी अनुदानों की वास्तविकता जानने हेतु सरकार और मंत्रियों को किसान की दहलीज तक पहुँचकर वास्तविकता को जाँचने का बीड़ा उठाना चहिये। सरकारी खरीद के हाल जानने मुख्यमंत्री सहित प्रदेश के मंत्री, सांसदों एवं विधायकों को प्रतिदिन सहकारी समितियों का आकस्मिक निरिक्षक करना चहिए। अन्नदाता की दुरुस्ती के लिये अब सरकार को तीसरे (गुप्त) नेत्र को खोलने की आवश्यकता है, ताकि सरकार के वायदे, मात्र वादाखिलाफी बनकर न रह जाए।

विनोद के. शाह