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साल 2002 के गुजरात दंगों का सच

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साल 2002 के गुजरात दंगों का सच
truth of the 2002 Gujarat riots
truth of the 2002 Gujarat riots
truth of the 2002 Gujarat riots

वर्ष 2002 में हुए गुजरात दंगों को लेकर अहमदाबाद में गुलबर्ग सोसाइटी में 69 लोगों की हत्या से संबंधित एक अदालत ने फैसला सुनाते हुए 24 लोगों को दोशी घोषित करते हुए शेष अरोपियों को दोशमुक्त कर दिया। 17 जून को उक्त दोशी आरोपियों में 11 को उम्र कैद, 12 को 7 वर्ष की कैद और एक को दस साल कैद की सजा सुनाई

उपरोक्त दण्डादेश पारित करते समय न्यायालय द्वारा एक विशेष बात लेख की गई, वह यह कि यदि कांग्रेस पार्टी के पूर्व सांसद एहसान जाफरी भीड़ पर अपनी रिवाल्वर से गोली न चलाते, जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हुई और 15 लोग घायल हुए, तो यह 69 लोगों का हत्याकाण्ड न होता।

क्योंकि गोली चलाने से वहां पर भारी मात्रा में इकठ्ठा भीड़ बुरी तरह आक्रोशित हो गई और वह पूरी तरह संयम खो बैठी, जिसका नतीजा था- गुलबर्ग सोसाइटी में 69 मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों की हत्या।

ऐसी स्थिति में जब यह कहा जाता है कि साल 2002 के गुजरात दंगे इकतरफा नहीं थे और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में शासन एवं प्रशासन ने पूरी कड़ाई से उन्हें रोकने का प्रयास किया था, तब यह बात बहुत लोगों के समझ में नहीं आती, या इस सच्चाई को वह समझना ही नहीं चाहते। इस संबंध में इन तथ्यों पर गौर करना जरुरी है।

इस बात में कोई दो मत नहीं कि 27 फरवरी 2002 को गोधरा में सावरमती एक्सप्रेस में सवार 59 कारसेवकों को, जिसमें महिलाएॅ और बच्चे थे, उनको मुस्लिम अतिवादियों द्वारा जिन्दा जला दिए जाने के कारण ये दंगे भडक़े। इस संबंध में न्यायालय द्वारा 24 लोगों को सजा भी दी जा चुकी है, लेकिन 28 फरवरी को गुलबर्ग सोसाइटी में हुए दंगों की हकीकत यह है कि सबसे पहले एहसान जाफरी द्वारा अपने रिवाल्वर से गोली चलाई गई।

इसके अलावा बड़ी हकीकत यह है कि वहां इकठ्ठी भीड़ पर पुलिस द्वारा लाठी-चार्ज किया गया। पुलिस ने वहां पर इकठ्ठी और अनियंत्रित भीड़ पर 124 राउण्ड गोलियं और 134 अश्रु गैस के गोले छोड़े। उपरोक्त गोली चालन से भीड़ में शामिल 5 व्यक्तियों की मृत्यु हुई और 11 लोग घायल हुए और यह सभी हिन्दू थे।

कोई कह सकता है कि इसका प्रमाण क्या है? तो इसके लिए वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एस.आई.टी. की रिपोर्ट को देख सकता है, जिसमें पेज 1 में ही इन बातों का हवाला है।

तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि इस घटना में पुलिस ने हिंसक भीड़ से 180 मुस्लिमों की जान बचाई। गुलबर्ग सोसइटी के अंदर उस वक्त 250 मुस्लिम थे, और बीस हजार हिन्दुओं की भीड़ वहां इकठ्ठी हो गई थी। इस संबंध में एहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी ने 6 मार्च 2002 को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत दिए गए कथन में स्वत: स्वीकार किया कि पुलिस ने उस दिन उसकी स्वत: तथा कई अन्य लोगों को वाहनों से दूसरे जगह ले जाकर जान बचाई।

यदि पुलिस ने समय से कार्यवाही न की होती तो मात्र 69 ही नहीं गुलबर्ग सोसाइटी में रहने वाले सभी 250 व्यक्ति हिंसक भीड़ के शिकार हो जाते। ऐसी स्थिति में कोई यह सवाल उठा सकता है कि फिर पुलिस ने 69 लोगों को क्यों नहीं बचाया? पर हकीकत यही है कि बीस हजार के दंगाईयों की भीड़ में पुलिस की संख्या बहुत कम थी, और ऐसी स्थिति में पुलिस जो हर संभव प्रयास कर सकती थी, उसने वह किया। इस बात का उल्लेख एस.आई.टी. की रिपोर्ट में है कि पुलिस ने व्यक्तिगत रूप से खतरा उठाकर और पॉच हिन्दुओं को गोली से मारकर बहुत साहस का कार्य किया था।

गुलबर्ग सोसाईटी हत्याकाण्ड में 24 लोगों को सजा मिलने के पष्चात गोधराकाण्ड के पश्चत गुजरात दंगों में सजा प्राप्त व्यक्तियों की संख्या अब तक कम-से-कम 467 हो चुकी है। जिसमें 356 हिन्दू और 111 मुस्लिम हैं। 111 मुस्लिमों में 31 गोधरा काण्ड से संबंधित हैं और शेष 80 गोधरा के पश्चात हुए दंगों से संबंधित हैं। जिससे यह प्रमाणित है कि गोधरा के बाद भी मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आक्रमण किए और उनकी हत्याएं की। जिससे सिद्घ होता है कि ये दंगे इकतरफा नहीं थे, जैसा कि प्रचारित किया जाता है, बल्कि मुसलमान भी आक्रामक थे।

यू.पी.ए. सरकार ने इस संबंध में संसद में जो जानकारी दी थी, उसके अनुसार गोधरा के पश्चात 790 मुस्लिम और 254 हिन्दू मारे गए और 127 लोग लापता हुए। एक लाख मुस्लिम और चालीस हजार हिन्दू घर-विहीन हुए और शरणार्थी कैम्पों में शरण लीं। ऐसी स्थिति में बड़ा सवाल यह कि इन दंगों को मुस्लिम जनसंहार बतौर क्यों प्रचारित किया जाता है?

यह बताना प्रासंगिक होगा कि 2002 के पहले गुजरात में 1969, 1985, 1990—91—92 में भी दंगे हो चुके हैं। जिनमें 2002 की तुलना में ज्यादा लोग मारे गए और जो प्रत्येक दृष्टि से 2002 की तुलना में ज्यादा भयावह थे। यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि इन दंगों में औसतन मात्र तीन व्यक्तियों को ही सजाएं हुईं।

यह बताना भी उचित होगा कि 2002 को छोडक़र इन सभी दंगों के वक्त गुजरात में कांग्रेस का शासन था। इसी तरह से 1984 के सिख विरोधी दंगों में जिसमें कम-से-कम तीन हजार सिख मारे गए थे, सूचना के अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार 7 प्रकरणों में मात्र 27 लोगों को सजाएं दी गईं।

1989 के बिहार के भागलपुर में हुए दंगे, जिसमें एक हजार लोग मारे गए थे, उसमें 142 प्रथम सूचना प्रतिवेदन दर्ज किए गए। पर अधिकांश प्रकरण बंद कर दिए गए और बांकी दोशमुक्त घोषित कर दिए गए। इस संबंध में गठित जस्टिस एन.एन. सिंह की रिपोर्ट में कांग्रेस सरकार को लापरवाही और भयावह संघर्ष के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है।

अब बहुत से लोगों का यह भी कहना है कि वर्ष 2002 के गुजरात दंगों को लेकर जो सजाएं हुईं, वह एस.आई.टी. के चलते हुईं, पर यह बात भी पूरी तरह गलत है। सच्चाई यह है- वैसे भी एस.आई.टी. ने कुछ चुनिन्दा प्रकरणों की ही छानबीन की थी। अधिकतर सजा प्राप्त प्रकरणों में गिरफ्तारी और अन्वेषण गुजरात पुलिस ने ही किया था।

हकीकत यह भी है कि एस.आई.टी. द्वारा गिरफ्तार अधिकतर आरोपी दोषमुक्त हो गए। उदाहरण के लिए सरदारपुरा प्रकरण में जो 31 लोग दोषी घोषित किए गए, उसमें 29 पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए थे। जबकि एस.आई.टी. द्वारा गिरफ्तार 21 लोगों में मात्र दो को ही सजा घोषत की गई। ऐसे ही नरोदा पटिया प्रकरण में 32 सजा प्राप्त आरोपियों में 21 गुजरात पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए थे।

यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि 467 लोगों को जो सजाएं हुईं, उसमें 274 को गुजरात सरकार के अभियोजन द्वारा हुईं। यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि इन दंगों में 2000 लोगों को गिरफ्तार किया गया था और 2000 में 467 लोगों को सजा मिलना, वह भी दंगों में- सजा की बहुत ही ऊंची दर कही जा सकती है।

तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि इन दंगों को गुजरात सरकार ने जिस तरह से रोकने का प्रयास किया, उसकी भी चर्चा न के बराबर हुई। इस दंगे में हिंसा को मुख्यत: तीन दिन में रोक लिया गया। अलबत्ता गोधरा, बड़ोदा और अहमदाबाद के पास कुछ छिट-पुट घटनाएं जरूर जारी रहीं। इसकी तुलना में 1969 के गुजरात दंगों में 69 दिन तक लगातार कर्फ्यू जारी रहा, तो 1985 के दंगों में 6 माह तक सतत हिंसा जारी रही।

2002 के दंगों में नरेन्द्र मोदी ने कितनी सतर्कता बरती, यह इसी से सिद्घ है कि 27 फरवरी को दंगा शुरू होने के पहले ही 827 निरोधात्मक गिरफ्तारियं कर ली गईं और बीस हजार लोगों को बाद में गिरफ्तार किया गया। नरेन्द्र मोदी ने 28 फरवरी को दंगे शुरू होते ही फौज को बुला लिया, जबकि 1969 के दंगे में फौज को दंगे शुरू होने के तीन दिन बाद बुलाया गया।

2002 के दंगों में 199 लोग पुलिस की गोली से मारे गए। पुलिस द्वारा 10559 राउण्ड फायर किए और 15369 अश्रु गैस के गोले छोड़े गए। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय गठित एस.आई.टी. की रिपोर्ट देखने लायक है। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार 27 फरवरी को गोधराकाण्ड के तुरंत बाद (7.47 से 8.20 ए.एम.) सरकारी मशीनरी को हाई एलर्ट कर दिया गया और सभी डिस्ट्रिक अथार्टी और कमिश्नरों को निर्देहशत किया गया कि समाज विरोधी एवं हार्डकोर साम्प्रदायिक तत्वों से सख्ती से निबटें (पेज 445)।

इतना ही नहीं 28 फरवरी को ही फौज बुलाने के साथ इसी दिन पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्यप्रदेश से कहा गया कि वह अपना अतिरिक्त पुलिस बल शीघ्र गुजरात भेजें। इस तरह से यह देखा जा सकता है कि गुजरात सरकार ने कितनी तत्परता से दंगों की रोकथाम की दिशा में कार्य किया और हिन्दुओं को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा। बावजूद इसके आज भी वोट बैंक के सौदागरों की निगाह में मोदी इन दंगों में दोषी ही नहीं मुसलमानों के हत्यारे हैं।

वीरेन्द्र सिंह परिहार