Home Breaking उत्तराखंड : नैनीताल हाईकोर्ट ने संवैधानिक ब्रेकडाऊन को आधार माना ही नहीं

उत्तराखंड : नैनीताल हाईकोर्ट ने संवैधानिक ब्रेकडाऊन को आधार माना ही नहीं

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उत्तराखंड : नैनीताल हाईकोर्ट ने संवैधानिक ब्रेकडाऊन को आधार माना ही नहीं
uttarakhand crisis : nainital high court on constitutional grounds not considered breakdown
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uttarakhand crisis : nainital high court on constitutional grounds not considered breakdown

अजय सेतिया

नैनीताल हाईकोर्ट ने उत्तराखंड के राष्ट्रपति राज की अधिसूचना को रद्द कर के 29 अप्रेल को विधानसभा में बहुमत का फैसला करने के आदेश जारी किए हैं] विधानसभा में विधायकों की स्थिति वह रहेगी, जो 27 मार्च को थी। उस दिन विधानसभा स्पीकर ने कांग्रेस के 9 बागी विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी थी।

यानि हाईकोर्ट ने कुल मिला कर हरीश रावत को बहाल किए जाने का आदेश जारी किया है। हरीश रावत के वकील और कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने सही कहा है कि हाईकोर्ट का यह फैसला अपरंमपरागत है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि निलंबित विधानसभा को बहाल कर मुख्यमंत्री को भी बहाल किया गया हो।

भाजपा को इस फैसले पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। पिछले सप्ताह भर से अदालत के रूख पर निगाह रखने वाले किसी बुद्धिजिवी को भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा। जब हाईकोर्ट नें राष्ट्रपति पर व्यक्तिगत टिप्पणी करते हुए कहा था कि वह राजा नहीं है, तभी स्पष्ट हो गया था कोर्ट को विनियोग बिल पास न होने से पैदा हुई संवैधानिक ब्रेकडाऊन की स्थिति से कुछ लेना देना नहीं, न ही हरीश रावत के एक न्यूज चैनल की ओर से किए गए स्टिंग आप्रेशन से कुछ लेना देना है।

केंद्र सरकार ने इन्ही दो आधारों पर सरकार को बर्खास्त कर के राष्ट्रपति राज लगाया था। अटार्नी जनरल और राज्यपाल के वकील ने इन्हीं दोनों मुद्दों पर अदालत को सबूत मुहैया करवाए थे। लेकिन अदालत शुरू से ही सरकार के बहुमत में होने या नहीं होने के मुद्दे को सामने रख कर सुनवाई कर रही थी। हरीश रावत की याचिका भी यही थी कि सदन में बहुमत साबित करने के लिए तय 28 मार्च की तारीख से पहले केंद्र सरकार ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। अदालत ने इसी मुद्दे को केंद्र बिंदू बना कर सुनवाई की धारा तय की।

अदालत की इस धारा को असल में राज्यपाल ने 19 मार्च को ही तय कर दिया था, जब उन्होंने रावत सरकार को अगले ही कार्य दिवस 21 मार्च को विनियोग विधेयक याकि वित्त बिल को पास करवाने का निर्देश देने की बजाए 9 दिन का समय देते हुए 28 मार्च को बहुमत साबित करने को कह दिया था। यानि हाईकोर्ट के फैसले की भूमिका राज्यपाल केके पाल ने लिख दी थी।

असल में राज्यपाल शुरू से ही केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं, अलबता राज्य सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे थे। उन्होंने पहले ही केंद्र सरकार की जडों में मट्ठा डाल दिया था। इस प्रकरण से एक बार फिर यह साबित हो गया कि राज्यपाल संसदीय कार्यप्रणाली का अनुभवी होना चाहिए, रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट नहीं, वे या तो शातिर होते है या मिट्टी के माधो होते हैं।

अटार्नी जनरल ने अदालत को समझाने की कोशिश की कि यह बहुमत का मुद्दा नहीं है। अलबत्ता संवैधानिक ब्रेकडाऊन का मुद्दा है, लेकिन अदालत ने इसे मानने से इनकार कर दिया। अदालत शुरू से ही बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर ही इस याचिका का फैसला करने पर अडी रही। वह मुद्दे को किसी ओर दृष्टिकोण से देखने को तैयार नहीं हुई। हालांकि संवैधानिक ब्रेकडाऊन का मामला सदन में बहुमत होने, नहीं होने से एकदम अलग है। यह तो स्पीकर की मनमानी और विनियोग विधेयक ( वित्त विधेयक) पास न होने से उत्पन्न स्थिति है।

मान लो कल को किसी सीमांत विधानसभा में मुख्यमंत्री को दो तिहाई बहुमत हासिल हो और वह विधानसभा से यह बिल पास करवा ले कि उन का राज्य भारत से संबंध विच्छेद कर के राज्य का चीन में विलय करता है, तो क्या बहुमत के आधार पर सरकार और विधानसभा बनी रहेगी या राष्ट्रपति राज लगा कर विधानसभा बर्खास्त की जाएगी। विधानसभा से संबंधित हर समस्या का हल बोम्मई केस के आधार पर नहीं हो सकता। इसलिए केंद्र सरकार को सुप्रीमकोर्ट से फैसला लेना चाहिए, ताकि ऐसी स्थिति पैदा होने पर दिशा निर्देश तय हो सकें।

हाईकोर्ट की राष्ट्रपति पर अवांच्छित टिप्पणियों और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार बर्खास्त नहीं किए जाने वाली टिप्पणियों पर भी केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए और इन टिप्पणियों को हटाते हुए न्या़पालिका के लिए दिशानिर्देश जारी करवाने चाहिए, ताकि कोई अदालत भविष्य में सर्वोच्च पद पर इस तरह की टिप्पणी न करे और हाईकोर्ट स्तर से भ्रष्टाचारियों को प्रोत्साहन देने वाली टिप्पणियां भी न आएं।

फेसबुक वाल से साभार