Home Delhi क्या न्यायपालिका कार्यपालिका बनते जा रही है?

क्या न्यायपालिका कार्यपालिका बनते जा रही है?

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क्या न्यायपालिका कार्यपालिका बनते जा रही है?
what is the relationship between the executive and judiciary
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what is the relationship between the executive and judiciary

भारतीय संविधान के तीन प्रमुख स्तम्भ हैं-विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका। संंविधान में तीनों के कार्य क्षेत्र स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं तथा उन्हें सीमांकित भी किया गया है।

संविधान लागू होने के 65 साल व्यतीत हो जाने के बावजूद तीनों संस्थाएॅं समय-समय पर एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के आरोपों के साथ-साथ सर्वोच्चता के मुद्दे पर भी बहस व विवाद करते रहती है, तथा प्रथक-प्रथक रूप से दूसरी संस्थाओं के साथ सांमजस्य के साथ परस्पर मान सम्मान का ध्यान रखते हुए कार्य करते चली आ रही है।

लेकिन इतना सब होने के बावजूद न्यायिक सक्रियता (यह शब्द सर्व प्रथम चीफ जस्टिस पी.एन. भगवती के द्वारा हाई लाईट हुआ) के कारण न्यायपालिका ने कई बार ऐसे निर्णय दिये हैं जो प्रथम दृष्टया कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण प्रतीत होते हैं। लेकिन जनता के हित में होने के कारण अन्ततोगत्वा जनता ने उन निर्णयों को सर आंखो पर रखकर स्वीकार किया है। तथापि न्यायिक क्षेत्र के बुद्घिजीवी वर्ग ने इस तरह कानून से परे जाने के आधार पर उक्त निर्णयों की आलोचना भी की हैं।

विगत चार दिवस पूर्व जनता के हित के विपरीत आए माननीय उच्चतम् न्यायालय के निर्णयों व उच्च न्यायालय दिल्ली के निर्भया मामले में आए निर्णय ने पुन: इस विवाद को न केवल सतह पर ला दिया बल्कि एक नया विवाद भी पैदा कर दिया।

माननीय उच्चतम् न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुए उत्तरप्रदेश के लोकायुक्त की नियुक्ति स्वयं कर उत्तर प्रदेश सरकार को उसे कार्याविन्त करने के आदेश दिए है जो स्पष्टत: कार्यपालिका का कार्य होने के कारण उच्चतम न्यायलय द्वारा प्राथमिक दृष्टि में कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कहा जा सकता है। लेकिन यह निर्णय तब आया जब पूर्व में उत्तर प्रदेश सरकार को लोकायुक्त की नियुक्ति कें संबंध में दिए गए निर्देश का उसने पालन नहीं किया तब उच्चतम् न्यायालय ने मजबूरी में उक्त नियुक्ति का आदेश पारित किया।

इसके विपरीत इसके लोक हित के विरूद्घ निर्भया कांड में उच्च न्यायालय द्वारा (’आदेश की तारीख पर बालिग हो जाने के बावजूद चूॅकि यौन अपराध करने वाला आरोपी अपराध करते समय नाबालिग था‘) उसकी रिहाई को रोकने से इनकार कर दिया, चूंकि वैसा आदेश पारित करना कानूनन सम्भव नहीं था।

इस प्रकार यहं उच्च न्यायालय ने जनता की भावना के अनूरूप निर्णय नहीं दिया, जबकि पूर्व में कानूनन सम्भव न होने के बावजूद कई ऐसे निर्णय दिए जो जनहित में थे। फिर चाहे वह सीएनजी का मामला हो, या डीजल गाडी का मामला हो, या अन्य अनेक ऐसे मामले हुए हैं जहॉ उच्चतम् न्यायालय द्वारा कानून के स्पष्ट प्रावधान न होने के बावजूद जनता की भावना के अनुसार जनहित में निर्णय दिये गए हैं।

इस प्रकार न्यायालय द्वारा कार्यपालिका के क्षेत्र में बार बार हस्तक्षेप हो रहा है, क्योकि कार्यपालिका अपने कार्य क्षेत्र में अपने दायित्वों को पूरा करने में बारम्बार असफल हो रही है। इसीलिए इस कमी की पूर्ति न्यायिक सक्रियता के मद्देनजर न्यायालय जन हित में दिए गए अपने निर्णयों के द्वारा करने का प्रयास कर रही है।

अब समय आ गया है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे हेतु उच्चतम संवैधानिक स्तर पर एक समिति बनाई जाए जो इस पर गंभीरता से विचार करे, ताकि भविष्य में इस तरह के निर्णय जन हित में आड में न आवे अन्यथा न्यायिक-सक्रियता न्यायिक आराजकता में बदल भी सकती है जिसकी कल्पना आज के शासन व न्यायिक वर्ग शायद नहीं कर पा रहे है।

अंत में लेख की समाप्ति करते करते एक संभ्रात और स्वच्छ छवि व उच्च सोच के नागरिक के समक्ष यह लेख लिख रहा था, के मुख से निकली गई बात को रेखांकित करना आवश्यक मानता हूं, जो वास्तव में एक प्रश्न पैदा करती है कि न्यायपालिका द्वारा इस तरह के आदेश जो स्पष्ट रूप से अधिनियम के दायरे के बाहर है, जनहित में होने के कारण जिन पर निर्णय वास्तव में मूल रूप से कार्यपालिका व विधायिका को लेना चाहिए था, इस कारण नहीं ले पा रहे है क्योंकि जनहित के बावजूद राजनीति का अंश उतर जाने के कारण उनके द्वारा राजनीतिक रूप से (शायद सम्भावित जन आक्रोश के कारण) निर्णय लेना संभव नहीं हो पा रहा था तो क्या कहीं कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच इस हेतु कोई अलिखित गुप्त संधि तो नहीं है?

राजीव खण्डेलवाल
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)