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भारत में ई-कॉमर्स कंपनियों को घाटा क्यों?

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भारत में ई-कॉमर्स कंपनियों को घाटा क्यों?
Why e-commerce companies lose in India?
Why e-commerce companies lose in India?
Why e-commerce companies lose in India?

एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में ई-कॉमर्स कंपनियां मुनाफे की सीढ़ियां चढ़ने से अभी भी काफी दूर हैं। इन कंपनियों में करोड़ों डॉलर निवेश करने वाले निवेशक अब अच्छे रिजल्ट का दबाव बना रहे हैं, ऐसे में फ्लिपकार्ट और अमेजन जैसी कंपनियां ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अभी भी आक्रामक तरीके से विज्ञापन पर पानी की तरह पैसे खर्च कर रही हैं और भारी डिस्काउंट दे रही हैं।

अमेजन ने बताया कि वित्तवर्ष 2015-16 के दौरान उसे भारत में 3,572 करोड़ रुपए (52.5 करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ है। यह आंकड़ा पिछले साल से दोगुना है। इसका कारण भी स्पष्ट है। अमेजन ने भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर और टेक्नोलॉजी पर बहुत अधिक निवेश किया है क्योंकि अमेरिका के बाद अमेजन के लिए भारत दूसरा सबसे बड़ा बाजार है।

आजकल ई-कॉमर्स शब्द का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। हर कोई इसके बारे में बात कर रहा है क्योंकि निवेशकों ने अमेजन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील में खरबों डॉलर का निवेश किया है, जबकि इस सेक्टर ने भारत में अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है। हर कोई यही अनुमान लगा रहा है कि यह सेक्टर मुनाफा कमाने वाला कब बनेगा।

ऐसा क्यों है कि अमेजन यूएसए ने लगातार आठ तिमाही तक मुनाफा कमाया, लेकिन अमेजन इंडिया ने अभी तक मुनाफा कमाने का कोई संकेत नहीं दिया है, जबकि अमेजन इंडिया में पैरंट कंपनी ने दो अरब डॉलर का निवेश किया। यह स्थिति इसलिए है क्योंकि अमेरिका की तुलना में भारत का रिटेल मार्केट अलग तरह का है।

दशकों से अमरीका को एक व्यापक रूप से संगठित मॉडर्न रिटेल मार्केट के रूप में देखा जाता है। यहां ऑनलाइन कारोबार की हर श्रेणी में कुछ लीडर हैं, जिनका मार्केट शेयर पर खासा कब्जा रहता है। इसकी जगह भारतीय रिटेल मार्केट का संचालन एक करोड़ 20 लाख खानदानी कारोबारियों के मॉम एंड पॉप स्टोर की ओर से किया जाता है। इस बड़े अंतर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

अमेरिका का आधुनिक रिटेल मार्केटिंग का मॉडल काफी विशाल और विस्तृत है, जिसमें शॉपिंग मॉल के अलग-अलग फ्लोर्स पर शानदार स्टोर्स है, जिसका खर्च काफी ज्यादा है। वहां दुकानों के मालिकों को दुकान के किराए और दूसरी आधारभूत लागत, ऑनलाइन वस्तुओं की लिस्ट को मेंटेंन रखना, कस्टमर सर्विस के लिए हर श्रेणी में कर्मचारियों की नियुक्ति पर काफी खर्च करना पड़ता है। यह लिस्ट काफी लंबी है और रिटेलर को मुनाफा कमाने से पहले प्रॉडक्ट की लागत के अलावा अन्य काफी खर्चे पूरे करने होते हैं।

वहीं दूसरी तरफ अमेजन का ऑनलाइन मॉडल पर खर्च काफी कम आता है क्योंकि प्रॉडक्ट्स को उच्च रूप से स्वचालित गोदाम में रखा जाता है, जिनका किराया किसी अच्छी जगह की तुलना में काफी कम है। इससे दूसरे खर्च भी काफी कम होते हैं। उपभोक्ताओं को कोई शिकायत या सवाल होने पर उनका ऑनलाइन ही समाधान किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि अमरीका में फिजिकल रिटेल मार्केट की तुलना में अमेजन का ऑनलाइन कारोबार करना काफी सस्ता पड़ता है और इसलिए वह बेहतर ढंग से तरक्की कर रहा है। इसके नतीजे काफी स्पष्ट हैं।

अब भारत के परिदृश्य पर नजर डालें, जो इसके ठीक विपरीत है। भारत में खानदानी कारोबारियों (मॉम एंड पॉप स्टोर्स) का 90 फीसदी रिटेल मार्केट पर कब्जा है। इन स्टोरों का संचालन इनके मालिकों द्वारा खुद ही किया जाता है। वह मॉल में मौजूद शोरूम की अपेक्षा काफी कम किराया चुकाते हैं। इनमें कम कर्मचारी रखे जाते हैं।

इन शोरूम में काफी कम मार्जिन लेकर काम किया जाता है। उनमें अपेक्षाकृत कम सामान ही रहता है और ग्राहक होने पर सामान का प्रबंध कर दिया जाता है। उनकी कोई ऑनलाइन मौजूदगी नहीं होती। इन्हें डिजिटलीकरण और ऑनलाइन सामान की सूची बनाने का भी काम नहीं करना पड़ता। इसीलिए इनके खर्चे कम हैं और यह काफी कम मार्जिन पर भी काम कर लेते हैं।

इसके अलावा एक अतिरिक्त परेशानी यह है कि मल्टीब्रैंड रिटेल पर एफडीआई पर सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार मार्केट प्लेस के ऑपरेटर विक्रेता नहीं हो सकते। इसका मतलब यह है कि वह सीधे विक्रेताओं से सामान खरीदकर नहीं बेच सकते। वह सिर्फ मार्केट प्लेस का संचालन कर सकते हैं, जो विक्रेताओं को खरीदारों से जोड़ता है।

इसलिए आखिर में कोई रिटेलर या डिस्ट्रिब्यूटर ही ऑनलाइन पोर्टल पर सामान बेचता है, पर ऑनलाइन कॉमर्स के मौजूदा मॉडल ने खर्चो में काफी बढ़ोतरी की है। इसमें प्रॉडक्ट को पिक करने, उन्हें गोदाम में रखने, डिलिवरी, कैश ऑन डिलिवरी (सीओडी) मैनेजमेंट और ऑनलाइन और ऑफलाइन ब्रांडिंग के कई खर्च जुड़े होते हैं।

इन खर्चो को कौन पूरा करेगा। मौजूदा ऑनलाइन मॉडल से रिटेल चेन की क्षमताएं नहीं बढ़ रही है और न ही इन खर्चो को पूरा करने के लिए लागत पर कोई बचत की जा सकती है। वेंचर कैपिटल से ही सारे खर्चे पूरे करने पड़ते हैं और इसीलिए भारत में दशकों के संचालन के बाद भी ऑनलाइन कारोबार को लगातार घाटा झेलना पड़ रहा है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि पश्चिमी देशों का ई-कॉमर्स मॉडल हू-ब-हू अपनाने और कट और पेस्ट करने की जगह भारत को अपना नया ई-कॉमर्स मॉडल विकसित करने की जरूरत है, जिससे 1 करोड़ 20 लाख रिटेलर्स को इससे लाभ उठाने का मौका मिले और वे ऑनलाइन खरीदारों तक बिना कोई ज्यादा खर्च किए हुए पहुंच सके।

हमें डिजिटल विभाजन की खाई को पाटना है। इसे बढ़ाना नहीं है। हमें उस मॉडल की जरूरत है, जिससे ज्यादा से ज्यादा नौकरियां पैदा की जा सकें और रिटेल इंडस्ट्री पर निर्भर हर भागीदार को इससे लाभ कमाने का मौका मिले। केवल उन थोड़े से लोगों को इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों से भारी मात्रा में फंड प्राप्त होता है और जो अपनी मनमर्जी से संसाधन जुटाने के लिए पैसा फिजूल खर्च करते हों।

सुरेश काबरा

(सुरेश काबरा प्राइजमैप ऐप के संस्थापक हैं। प्राइज मैप बायर एप किसी खानदानी (मॉम एंड पॉप) स्टोर के मालिकों को ऑनलाइन खरीदार तक आईटी संसाधनों और आधारभूत ढांचे पर बिना किसी अतिरिक्त खर्च के अपना प्रॉडक्ट पहुंचाने का मौका देता है)