संपादकीय : बीजेपी भी सुन रही है…गढ़ की जर्जर दीवारों का अफसाना

अलविदा होती सर्दी और पारा चढने के साथ लोकसभा चुनाव की रणभेरी गूंज उठी है। अजमेर जिले का राजनीतिक मौसम भी करवट लेता नजर आ रहा है। सफेदपोश लबादा ओढे राजनीति के मेंढक टार्राने लगे हैं। कहने को तो यहां परंपरागत रूप से बीजेपी और कांग्रेस के वोटर्स के बीच जंग होती आई है पर हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में बागियों की फौज और निर्दलीयों के दम ने राजनीतिक पार्टियों की दिमागी घंटी बजा दी है।

अजमेर उत्तर, ब्यावर, किशनगढ, पुष्कर, मसूदा, भिनाय में बागी होकर निर्दलीय चुनाव लडने वालों ने भाजपा और कांग्रेस को बता दिया है कि वोट बटोरने में हम भी किसी से कम नहीं। लोकसभा चुनाव में बस यही वजह प्रमुख राजनीतिक दलों के नीति निर्धारकों की बैचेनी का कारण बनी हुई है। बागी भले ही जीत ना पाएं पर अपनी पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी की जीत में रोडा बन सकते हैं। मजबूरन नाराज नेताओं को पुचकारा जाने लगा है। भाजपा में तो बाकायदा बिन मुहूर्त घरवापसी की रस्म अदायगी हो रही है। फूंक फूंक कर कदम बढाने की तर्ज पर प्रत्याशी खोज कर थोपे जा रहे हैं। दलबदलुओं की पौ बारह है। पाला बदलने, विचारधारा त्यागने का खेल परवान चढ चुका है।

भाजपा देशभर में प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर पूरी रणनीति के साथ चुनावी समर में उतरने का दावा कर रही है। राजस्थान में सभी 25 सीटे जीतने का ख्वाब देखा जा रहा है। इस ख्वाब को सच करने मे अजमेर संसदीय सीट भी मानी जा रही है। होलिका दहन के दिन जारी हुई भाजपा की पांचवी लिस्ट में भागीरथ चौधरी ने एक बार फिर बाकी दावेदारों का धत्ता बताते हुए बाजी मार ली। हालाकि विधानसभा चुनाव के दौरान संगठनात्मक स्तर पर हुए कार्यकर्ताओं के बंटवारे और बगावत का बि​गुल फूंकने वालों की बेरुखी भाजपा के लिए आने वाले तूफान का संकेत है।

यह कहना गलत ना होगा कि सत्ता सुख भोग रहे अजमेर के नेताओं के इशारे पर चलने वाले पार्टी के स्थानीय संगठन की स्थिति उपर से प्राप्त आदेशों की अनुपालना तक सीमित होकर रह गई है। ऐसे में पार्टी विद द डिफरेंस का दावा करने वाली बीजेपी के लिए अजमेर सीट गलफांस बन सकती है। गत बार 4 लाख से भी अधिक वोटों से जीत हासिल करने वाले वर्तमान सांसद भागीरथ चौधरी को भले ही फिर मैदान में उतारा गया हो लेकिन हाल ही में किशनगढ से विधानसभा सीट पर वे बुरी तरह हार कर बेकद्री करा चुके हैं। ऐसे में लगातार दूसरी बार संसद तक पहुंचने के लिए चुनावी वैतरणी को हिचकोले भरती नाव के भरोसे वे कैसे पार करेंगे ये देखना भी दिलचस्प होगा। भागीरथ के खेवनहार खुद अपनी नाव मझधार से बड़ी मुश्किल से निकालकर ला पाए थे।

भाजपा को ये नहीं भूलना चाहिए कि विधानसभा चुनाव के दौरान अजमेर उत्तर में जीत हासिल करने वाले वासुदेव देवनानी को कांग्रेस से अधिक अपनी ही पार्टी से बागवत कर निर्दलीय ताल ठोकने वाले पार्षद ज्ञान सारस्वत ने बडी चुनौती दी थी। लगातार जीत रहे देवनानी को चुनाव के दौरान सारस्वत ने घुटनों के बल ला दिया था। लंगडाकर चलने वाले सारस्वत ने बढती उम्र वाले देवनानी को इतना दौडाया कि उन्हें हांफने तक की फुर्सत ना लेने दी।

जमा खर्च बराबर करने की आदत से मजबूर देवनानी संघर्षपूर्ण जीत और स्पीकर जैसे पावरफुल पद से नवाजे जाने के बाद मंत्रियों की तरह आदेश देने की ताकत वाले रूआब की जगह निर्देश देने तक सीमित कर दिए गए। मंत्रियों के दस्तखत वाली चिडिया बैठे बिना उनके निर्देश बेमानी हैं। हां, एक बात जरूर है कि चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा दर्द देने वाले बागी होकर निर्दलीय चुनाव लडने वाले ज्ञान सारस्वत की अब तक घरवापसी नहीं हुई। इसे भी देवनानी की ताकत से जोडकर देखा जा रहा है। चुनाव में करीब 26 हजार मत हासिल करने के बाद भी सारस्वत की सकारात्म्क चुप्पी और मोदी बयार के साथ बहने के पीछे संघ का वदरहस्त माना जा रहा है। ऐसे में उनकी घरवापसी को देवनानी लंबे समय तक रोक पाएं ऐसा नहीं लगता।

राजनीति के जानकारों की माने तो स्पीकर जैसे विधायिका के पद से नवाजे जाने के बाद देवनानी अब भाजपा के काम के नहीं रहे। वे चाहकर भी लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में खुलकर प्रचार नहीं कर सकेंगे। ऐसे में लोकसभा चुनाव के दौरान उनके विधानसभा क्षेत्र का खेवनहार कौन बनेगा यह सवाल भी उठ खडा हुआ है।

जिला बन चुके ब्यावर को भले ही राजसंद का परकोटा अपने आगोश में ले चुका हो, लेकिन उसकी आत्मा अब भी अजमेर से जुडी हुई है। यहां विधानसभा चुनाव में एक अनार सौ बीमार की तर्ज पर टिकट चाहने वालों की लंबी फेहरिस्त में शंकर सिंह रावत भले ही बाजी मार गए हों, लेकिन निर्दलीय ताल ठोकने वाले इन्दर सिंह बागावास जैसे सनातनियों ने रावत की जीत वोटों की गिनती हो जाने तक सांसत में डाले रखा। कुछ ऐसा ही पुष्कर विधानसभा क्षेत्र में सुरेश रावत के साथ भी घटित हुआ। वहां बागवती अशोक रावत ने उनके परंपरागत वोट बैंक में सेंधमारी की। टिकट दिलाने के बदले 4 करोड रुपए जैसी मोटी रकम हडप करने का आरोप प्रेस वार्ता में खुले तौर पर लगने से सुरेश रावत के लिए मुश्किलों का पहाड खडा हो गया था। ऐसे में सरलता से होने वाली जीत के लिए रावत को खासे पापड बेलने पडे।

नसीराबाद में रामस्वरूप लांबा के सामने अपने बेटे को मैदान में उतार कर ​भंवरसिंह पलाडा ने लांबा का रायता ढोलना चाहा। शुक्र मनाईए कि खुद कांग्रेसिंयों ने अपनी पार्टी के प्रत्याशी शिवप्रकाश गुर्जर को गुर्जर जाट के चक्कर में बलि चढा दिया और जीत का सेहरा लांबा के सिर बंध गया वर्ना लांबा भी खतरे के निशान पर ही थे। गजब बात ये है कि हाल ही पलाडा परिवार की घर वापसी हो गई, जो स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए ना उगलते बने ना निगलते बने सरीखा है।

भिनाय और मसूदा में भाजपा एकजुटता के साथ विधानसभा चुनाव में उतरी हो ऐसा नहीं है। तब की बनी गांठे लोकसभा चुनाव में खुल जाएंगी इसको लेकर भाजपा आलाकमान भले ही अतिआत्मविश्वास में हो लेकिन धरातल पर इसके आसार फिलवक्त तक नजर नहीं आ रहे।

अंत में बात भाजपा की संगठनात्मक एकजुटता की तो बतादें शहर और देहात के अध्यक्ष एक बडे नेताओं के आगमन के इतर कभी एक जाजम पर बैठे नहीं दिखे। अजमेर उत्तर और दक्षिण में बंटी शहर भाजपा के हाल जगहाजिर है। देवनानी के वरदहस्त से पार्षद से शहर अध्यक्ष का ताज पहनने वाले रमेश सोनी भी सिर्फ अजमेर उत्तर विधानसभा क्षेत्र अध्यक्ष से अधिक साख नहीं बना सके हैं। उधर, पूर्व में दागी होने का तमगा धारण करने के बाद देहात भाजपा अध्यक्ष देवीशंकर भूतडा की राजनीति आलाकमान के वरदहस्त तले चल रही है। देहात से चुने गए विधायक अपने दम पर राजनीतिक जमीन बचाए हुए हैं।

विजय सिंह मौर्य
संपादक, सबगुरु न्यूज

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