श्रावण शुद्ध सप्तमी को, अर्थात् इस वर्ष 31 जुलाई को संत श्री गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती है। इस अवसर पर उनका चरित्र संक्षेप में जान लेते हैं।
जन्म और बाल्यकाल : उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर में आत्माराम और हुलसी के घर श्रावण शुद्ध सप्तमी को तुलसीदास जी का जन्म हुआ। वे माँ के गर्भ में बारह महीने रहे। जन्म के समय मूल नक्षत्र था, मुख में बत्तीस दाँत थे, कद पाँच वर्ष के बालक जैसा था। जन्म लेते समय वह बालक रोया नहीं, अपितु उसके मुख से ‘राम’ नाम निकला। ऐसे अद्भुत किंतु अशुभ लक्षण देखकर माता-पिता ने उस बालक को सुवर्णदान के साथ चुनिया नाम की दासी को सौंप दिया।
बाद में उसकी माता हुलसी का भी निधन हो गया। चुनिया दासी ने पांच वर्षों तक उसका पालन-पोषण किया। फिर चुनिया का भी निधन हो गया। वह बालक एकाकी जीवन जी रहा था, तब स्वयं जगज्जननी मां पार्वती ब्राह्मण स्त्री के वेश में आकर उस बालक को नरसिंह दास नामक साधु को सौंप गई। नरसिंह दास ने उसका पालन किया। बाद में शिव शंकर ने नरहर्यानंद को दृष्टांत देकर उस बालक का उपनयन करने को कहा। उपनयन के बाद बालक का नाम रामबोला रखा गया। वही तुलसीदास हैं।
अध्ययन: अयोध्या में बारह वर्षों तक श्रीगुरु के सान्निध्य में रहकर उन्होंने वेद-शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण किया। बाद में वे हस्तिनापुर लौटे। वहाँ उनकी अपने पिता आत्माराम दुबे से भेंट हुई। आत्माराम अकबर दरबार में थे। एक बार वे तुलसीदास को अकबर के पास ले गए। अकबर को तुलसीदास बहुत प्रिय हो गए। बादशाह उन्हें शिकार पर भी अपने साथ ले जाया करता।
विवाह और वैराग्य: तुलसीदास के पिता आत्माराम ने उनका विवाह एक धनाढ्य व्यक्ति की कन्या से धूमधाम से किया, उसका नाम रत्नावली था। दोनों पति-पत्नी को एक-दूसरे से अत्यधिक प्रेम हो गया। तुलसीदास को रत्नावली के बिना एक पल भी चैन नहीं मिलता। एक दिन जब तुलसीदास अकबर के साथ दूर देश गए हुए थे, रत्नावली बुलावे पर अपने मायके चली गई। तुलसीदास लौटे तो उन्हें बताया गया कि रत्नावली मायके गई हैं। वे तुरंत ससुराल की ओर निकल पड़े। वहां पहुंचे तो दो प्रहर रात बीत चुकी थी। घर के सब लोग दरवाज़े बंद कर सो गए थे।
तुलसीदास सोचने लगे कि भीतर कैसे प्रवेश करें? वे रत्नावली से मिलने को अत्यंत व्याकुल थे। उन्हें खिड़की पर लटकता एक सांप दिखाई दिया। उसे वे रस्सी समझकर और पकड़कर भीतर चले गए। घर के लोग जाग गए। तुलसीदास के आने की खबर रत्नावली को उसकी माँ ने दी। वह तुलसीदास के पास आई और बोली, “सभी दरवाज़े बंद थे, आप भीतर कैसे आए? तुलसीदास बोले कि तुमने जो रस्सी लटकाकर रखी थी, उसे पकड़कर मैं आया। यह सुन रत्नावली को आश्चर्य हुआ। वह खिड़की पर जाकर देखती है, तो एक बड़ा साँप लटकता हुआ दिखाई दिया। तब वह तुलसीदास से बोली, प्राणनाथ, आप मुझसे जितना प्रेम करते हैं, उतना यदि श्रीराम से करें, तो आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। यह सुनकर तुलसीदास विरक्त हो गए। उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। वे वहीं से निकल पड़े और आनंदवन पहुंचे। वहां उन्होंने बारह वर्षों तक तपस्या की। फिर वे रामकथा कहने लगे।
राम-दर्शन की उत्कंठा
एक बार तुलसीदास को एक पिशाच मिला। पिशाच ने पूछा कि तुझे क्या चाहिए? तुलसीदास बोले, राम का दर्शन करा दो। यह सुनकर पिशाच आगे-आगे चलने लगा। कुछ दूर जाकर बोला, तू जिस स्थान पर पुराण सुनने जाता है, वहां एक वृद्ध ब्राह्मण हाथ में लाठी लेकर सबसे पहले आकर बैठता है और सबके जाने के बाद निकलता है – वही तुझे राम का दर्शन कराएगा। वह वास्तव में हनुमान है। इतना कहकर पिशाच अदृश्य हो गया। अगले दिन पुराण समाप्त होने पर वह ब्राह्मण जा ही रहा था कि तुलसीदास ने उसे मार्ग में रोककर साष्टांग नमस्कार किया। ब्राह्मण बोला, मैं तो एक गरीब ब्राह्मण हूं, तुझे देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं। तुलसीदास बोले, आप हनुमान हैं। श्रीराम के दर्शन आप ही मुझे करा सकते हैं।
हनुमान ने तुलसीदास को पहचान लिया कि यह वाल्मीकि का ही अवतार है। उन्होंने तुलसीदास को प्रेमपूर्वक आलिंगन दिया। जल्दी ही श्रीराम के दर्शन कराने का आश्वासन देकर वे अदृश्य हो गए। हनुमान ने श्रीरामचंद्र से कहा कि आपकी आज्ञा से वाल्मीकि ने तुलसीदास रूप में अवतार लिया है। वे आपके दर्शन के लिए अत्यंत व्याकुल हैं। तब प्रभु श्रीराम ने तुलसीदास को वाल्मीकि द्वारा वर्णित रूप में दर्शन दिए और उन्हें आलिंगन कर मस्तक पर हाथ रखकर अदृश्य हो गए।
रचनाएं : तुलसीदास को कवि के रूप में हिंदी साहित्य में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। मध्यकालीन भारत में तुलसीदास जैसा दूसरा कोई लोकप्रिय कवि नहीं हुआ। उनकी रचनाओं ने गरीब की झोपड़ी से लेकर अमीर के महल तक समान रूप से प्रवेश किया है। वे रामचरितमानस, अयोध्याकांड, सुंदरकांड आदि महान आध्यात्मिक ग्रंथों के रचयिता हैं। हनुमान चालीसा की रचना तुलसीदास ने की। हनुमान ने उन्हें विनयपद लिखने की आज्ञा दी, जिसे स्वीकार कर उन्होंने ‘विनय-पत्रिका’ नामक श्रेष्ठ काव्य रचा। संत तुलसीदास ने वाल्मीकि रामायण को हिंदी रूप में प्रस्तुत किया। वही है तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस।
संवत 1631 की रामनवमी को तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया। दो वर्ष, सात महीने, सत्ताईस दिनों में यह रचना पूर्ण हुई। संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में श्रीराम-सीता विवाह-दिवस पर सातों कांड पूर्ण हो गए। भगवान श्रीराम की आज्ञा से तुलसीदास काशी पहुंचे और श्री विश्वनाथ व अन्नपूर्णा को अपना काव्य सुनाया। ग्रंथ को विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में रख दिया। अगले दिन उस ग्रंथ पर लिखा था – सत्यं शिवं सुंदरम, नीचे श्री शंकर लिखा था।
प्रत्यक्ष भगवान ही रक्षक : तुलसीदास की इस काव्य को नष्ट करने का कुछ दुष्टों ने प्रयास किया। उनके घर चोर भी भेजे गए। परंतु वहां दो धनुर्धारी पहरा दे रहे थे। यह देखकर चोर भाग गए। बाद में तुलसीदास ने वह ग्रंथ अपने घनिष्ठ मित्र टोडरमल के पास रख दिया।
अवतार कार्य : तुलसीदास ने भारत भ्रमण किया। तत्कालीन हिन्दू समाज पर हुए आक्रमणों को देखकर वे अत्यंत दुःखी हुए। उन्होंने भारत के सभी राजाओं को एकत्र करने का प्रयास किया। सामान्य जनों में भी उन्होंने जनजागृति की। तुलसीदास ने रामलीला नाट्य-प्रकार का आरंभ किया।
तुलसीदास की शिक्षाएं : तुलसीदास की भक्ति में विनय को अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। उनका विश्वास था कि अहंकार नष्ट होकर विनम्र बने बिना भक्ति का आनंद अनुभव नहीं किया जा सकता। इस अहंकार के नाश के लिए आत्मपरीक्षण कर अपने दोषों का नाश करना और गुणों की वृद्धि करना आवश्यक है। भक्ति के लिए सत्संग, ज्ञान, वैराग्य, तप, संयम, श्रद्धा, प्रेम, भगवत कृपा, शरणागति इन बातों को उन्होंने महत्वपूर्ण माना। उसी प्रकार सनातन संस्था के संस्थापक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले ने गुरुकृपायोग के अनुसार अष्टांग साधना बताई है। इसके अनुसार अनेक साधक अल्पकाल में संत और सद्गुरु पद तक पहुंचे हैं।
श्रीराम चरणों में विलीन: श्रावण वद्य तृतीया, 1623 को तुलसीदास ने अस्सी घाट पर श्रीराम नाम का उच्चारण करते हुए देह त्याग दिया।
सन्दर्भ :- सनातन संस्था
श्रीमती. कृतिका खत्री,
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