साहित्य संवेदना का आश्रयस्थल : अशोक पांडे

सिरोही के राजकीय महाविद्यालय।में हिंदी विभाग में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का दीप प्रज्ज्वलित करते अतिथि एवं वार्ताकार।
सबगुरु न्यूज (परीक्षित मिश्रा)-सिरोही। राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में बुधवार को साहित्य, समाज और संस्कृति: अंत: संबंध विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम सत्र को संबोधित करते हुए लेखक अशोक कुमार पांडे ने कहा कि साहित्य संवेदना का आश्रय स्थल है।
उन्होंने इसे सौदाहरण समझाते हुए कहा कि प्रेम, शोषण, सामाजिक विभेद, आर्थिक असमानता समेत ऐसे कई सामाजिक संवेदनाएं हैं जिनकें साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि असल में दिल से आई बात को शब्दों के रूप में पिरोना ही साहित्य है। जो व्यक्ति लिखते समय दिल की बजाय दिमाग का इस्तेमाल करे वो इतिहासकार हो सकता है, लेकिन साहित्यकार नहीं हो सकता।
उन्होंने कहा कि हमारी संवेदना भी सामाजिक नियमों से बंधी होती हैं। ऐसे में साहित्य के माध्यम से समाज में बदलाव का मार्ग प्रशस्त होता है। उन्होंने कहा कि बेहतर और स्वस्थ सामाजिक तानाबाना विकसित संस्कृति का मूल है।
उन्होंने कहा कि समाज के कुछ नियम हैं। इनको पालने की सबको बाध्यता है। लेकिन, ये नियम पुरुष-स्त्रि के लिए समान नहीं है। साहित्य ऐेसी संवेदनाओं को दर्शित करता है। उन्होंने कहा कि जो समाज ऊपर से एक समान दिखता है वो असल में मल्टीलेयर होता है। इसमें  लिंग, जाति, संप्रदाय, धन आदि पर कई विभेद होते हैं। इसी  के आधार पर शोषण और अन्याय को चित्रित करने का  काम साहित्य करता है।
उन्होंने कहा कि अपने समय के शोषित वर्ग का प्रवक्ता है तो वो साहित्य है अन्यथा सुन्दर पंक्तियां तो कोई भी लिख लेता है लेकिन ऐसे लेखक की गिनती इतिहास में प्रेमचंद और रामधारीसिंह दिनकर की श्रेणी में नहीं होती है।
सिरोही राजकीय महाविद्यालय में हिंदी विभाग की ओर से अयोजित संगोष्ठी में मौजूद सम्भागी।

उन्होंने कहा कि प्रेमचंद और दिनकर हिन्दी जगत में इसलिए याद नहीं किए जाते कि उन्होंने अच्छा लिखा बल्कि इसलिए जाने जाते हैं कि उन्होंने तत्कालीन सत्ता के शोषण के शिकार लोगों के पक्ष में सत्ता की गलत नीतियों के खिलाफ लिखा है। साहित्य हमेशा सामाजिक कुरीति और अव्यवस्था की पोषण करने वाली सत्ता के खिलाफ खड़ा होता है। उन्होंने कई उदाहरणों के माध्यम से ये समझाने की कोशिश की कि साहित्य के माध्यम से समाज को तर्कशील बनाकर विकसित संस्कृति की विरासत पाई जा सकती है।
सिरोही विधायक संयम लोढ़ा ने कहा कि हम पर पर बहुत लोगों ने शासन किया। लेकिन, उस सारे दौर में भी लोग दीया बनकर जलते रहे। जब देश में मुगलों को शासन था तो ऐसा माहौल बनाया गया था कि कमजोर लोग धर्म परिवर्तन करें। लेकिन, उसी काल में तुलसीदास ने रामचरित्र मानस लिखी। कबीर दास जी ने मुगलों के काल में लिखा कि ‘कांकर पाथर जोडक़र मस्जिद लई बनाय…’ तो सिंधिया काल में लिखा कि ‘पत्थर पूजे हरि मिले…’। उस समय भी सहित्यकार सत्ता से बेखौफ होकर समाज में बदलाव करके बेहतर सांस्कृतिक विरासत देने का प्रयास करते रहे।
महाविद्यालय प्रार्चाय नवनीतकुमार अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि साहित्य की कालजयी रचनाओं की बात करते हैं तो प्रत्यक्ष उदाहरण रामायण और महाभारत हैं। भारतीय उपमहाद्वीप पर पैदा हुआ किसी भी जाति, धर्म और युग का व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता है इन दोनों साहित्यों ने उनके जीवन पर प्रभाव नहीं डाला है।

उन्होंने महाभारत सीरियल का उदाहरण देते हुए कहा कि भारत की संस्कृति में ही यह राही मसूम रजा जैसा मुस्लिम साहित्यकार नब्बे के दशक में सडक़ों पर लॉक डाउन सा माहौल बना देने वाले टीवी सीरियल महाभारत के डायलॉग लिखकर समाज के हर वर्ग को प्रभावित कर सकता है।
उन्होंने  अलोचना का महत्व बताते हुए कहा कि विश्वविद्यालय और महाविद्यालय वो स्थान हैं जहां पर हमें किसी भी विषय को समझना भी और आलोचना करना भी सीखना है। महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के सहआचार्य भगवानाराम बिश्नोई ने धन्यवाद ज्ञापित किया। मंच संचालन डॉ कैलाश गहलोत ने किया।
संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में मुख्य वक्ता लेखक और साहित्यिक चिंतक डॉ हिमांशु पंडया ने साहित्य को समाज कर दर्पण कहने की मान्यता को नकारा। उन्होंने कहा कि कई दरबारी कवियों ने अपनी रानियों को विलक्षण सुंदरता के बारे में लिखा है, भले ही वो ऐसी रही हों या नहीं रही हों। यदि साहित्य दर्पण होता तो उनकी रचनाओं में रानियों की लौकिक खूबसूरती का चित्रण होता न कि अलौकिक खूबसूरती का। तो इस लिहाज से साहित्य को समाज का दर्पण कहना मिथ्या है क्यों कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता है।
उन्होंने कहा कि प्रेमचंद ने साहित्य को मशाल कहा है। जो समाज का मार्गदर्शन करके सहअस्तित्व की संस्कृति को पोषित करती है। उन्होंने कहा कि अच्छा साहित्य समाज का मार्गदर्शक होता है। वह आपको समाज के उन पहलूओं की ओर ले जाता है जिन पर आपकी नजर नहीं जाती।
लखनउ में आयोजित 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के दौरान की किंवदंति की चर्चा करते हुए डॉ पण्ड्या ने कहा कि इस सम्मेलन में नेहरू मंच पर नहीं बैठकर श्रोताओं में बैठे थे और मंच से अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं है, साहित्य राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने वाली सच्चाई है। उन्होंने कहा कि रीतिकाल में साहित्यकारों ने महलों के महिमांडन किए।
प्रेमचंद के साहित्य ने उसे महलों से झोपड़ों तक लाने का काम किया और सरकारों को उनके बारे में सोचने को मजबूर किया।
उन्होंने पत्रकारिता को भी साहित्य की विधा बताते हुए महात्मा गांधी के एक पत्रकार के रूप में निभाई भूमिका के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी एक ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने सत्याग्रह की खबरों के लिए अपने इंडियन ओपिनियन अखबार में लगाना बंद कर दिया। जो आज के दौर में संभव नहीं है।
राजकीय महाविद्यालय आबूरोड के सह आचार्य डॉ दिनेश चारण ने पूर्व वक्ताओं के द्वारा साहित्य से ज्यादा टीवी मीडिया के समाज पर पडऩे वाले प्रभाव और उससे प्रदूषित होती संस्कृति पर विचार रखे। उन्होंने कहा कि बाजार हमारे समाज की दिनचर्या और जीवनशैली तय करने लगा है और जब बाजार आपकी जीवनशैली तय करता है तो ये मानकर चलना होगा कि हमारी संवेदनाएं खत्म हो चुकी हैं। उन्होंने इसलिए कहा कि यदि किसी को भारत को समझना है तो उसे मैला आंचल और प्रेमचंद को पढऩा होगा।
इस दोरान मंच संचालन डॉ शचि सिंह ने किया। वहीं धन्यवाद ज्ञापित करते हुए हिन्दी विभाग की अध्यक्ष डॉ संध्या दूबे ने कहा सभी वक्ताओं के उद्बोधन को समेकित करते हुए कि असल में साहित्य, समाज और संस्कृति मानव से अंतरसंबंधित है। इनका योगदान मानव जीवन को सरल बनाना है। इस दौरान महाविद्यालय के विभिन्न विभागों के सह आचार्य एवं महाविद्यालय के छात्र-छात्राएं मौजूद थे।