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असम में टूटा अजमल बदरूद्दीन का सादुल्ला बनने का सपना

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असम में टूटा अजमल  बदरूद्दीन का सादुल्ला बनने का सपना
AIUDF chief Badruddin Ajmal
AIUDF chief Badruddin Ajmal
AIUDF chief Badruddin Ajmal

जिन पांच राज्यों में विधान सभा के चुनाव हुए थे, उनका परिणाम आ चुका है। हम यहां केवल असम और उसके चुनाव परिणाम की चर्चा करेंगे। असम के चुनाव और उसके परिणाम, पूर्वोत्तर के शेष सात राज्यों को भी प्रभावित करता है। उसकी गूंज पूरे पूर्वोत्तर भारत में सुनाई देती है।

असम के लोगों ने इस बार अजमल बदरुद्दीन का असम का सादुल्ला बनने का सपना तोड़ दिया है। बदरुद्दीन इत्र फुलेल का धंधा करता है और धीरे धीरे उसके अनुयायियों ने उसे छोटे मोटे पीर का दर्जा देना शुरु कर दिया है। इन चुनावों में अनेक स्थानों पर मुसलमान औरतें अपने बच्चों के सिर पर बदरुद्दीन का हाथ रखवा रहीं थीं ताकि भविष्य में बच्चों पर किसी भूत प्रेत का साया न पड़े।

लेकिन इत्र फुलेल के इस व्यापारी को नज़दीक़ से जानने वाले यह भी कहते हैं कि उन औरतों को पैसे देकर इस भीड़ में शामिल किया जाता है। जो भी हो, इतना सभी मानते हैं कि इस चुनाव ने असम पर से बदरूद्दीन का काला साया ज़रूर हटा दिया है। लेकिन बदरूद्दीन कौन है, यह जानने से पहले सादुल्ला कौन था और उसका सपना क्या था जानना ज़रूरी है।

सादुल्ला यानि मौलवी सैयद सर मोहम्मद सादुल्ला। वे 1947 से पहले लगभग आठ साल असम के मुख्यमंत्री रहे। वे अंग्रेज़ों के पिट्ठू थे और ब्रिटिश सरकार की सहायता से 1947 से पहले ही असम को मुस्लिम बहुल बनाकर पाकिस्तान में शामिल करवा देना चाहते थे। इसलिए वे अपने शासन काल में बंगलादेश (उस समय पूर्वी बंगाल) से मुसलमानों को ला लाकर असम में बसा रहे थे।

लेकिन वे असम में अभी सिलहट को ही मुस्लिम बहुल बना पाए थे कि अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ने का निर्णय कर लिया। इसी मुस्लिम बहुलता के कारण ब्रिटिश सरकार सिलहट को पाकिस्तान में शामिल कर सकी।

इसलिए सादुल्ला को इतना संतोष ज़रूर हुआ कि वे सारे असम को न सही, सिलहट को तो पाकिस्तान में शामिल करवा ही सके। मोहम्मद सादुल्ला 1947 से पहले मुस्लिम लीग की कार्यकारिणी का सदस्य था और मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की स्थापना के लिए पारित किए गए प्रस्ताव में भी भागीदार था।

लेकिन भारत विभाजन के बाद उसने पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया और असम में रह कर ही असम को मुस्लिम बहुल बनाने का अपना अधूरा एजेंडा पूरा करने का प्रयास जारी रखा। वह भारत की संविधान सभा का सदस्य बन गया और 1947 के बाद कांग्रेस के साथ मिल कर असम की राजनीति में सक्रिय हो गया। उसने एक सोची समझी रणनीति के तहत असम में मुस्लिम लीग के मुसलमानों को बड़ी संख्या में कांग्रेस में शामिल हो जाने के लिए प्रेरित किया।

उसके प्रयासों से असम की मुस्लिम लीग, कांग्रेस में घुलमिल कर उसी का हिस्सा बन गई। इस प्रकार असम की राजनीति के शुरुआती दौर में कांग्रेस और मुस्लिम लीग एक साथ मिल कर असम का शासन चलाने लगे। अन्तर केवल इतना ही था कि मुस्लिम लीग, कांग्रेस में मिल कर निराकार हो गई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि असम में अवैध बंग्लादेशी मुसलमानों की संख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी।

1955 में सादुल्ला की मौत के बाद भी, असम में कांग्रेस और मुस्लिम लीग का यह समझौता लगभग 1983 तक चलता रहा। ध्यान रहे पूर्वी बंगाल से, जो उस समय पूर्वी पाकिस्तान और अब बंगला देश के नाम से जाना जाता है, मुसलमानों का असम में आना उस समय ही शुरु हो गया था। उनकी बढ़ रही संख्या को देखकर असमिया समाज को अपनी पहचान और अस्तित्व ही ख़तरे में दिखाई देने लगा।

वोटों के लालच में सोनिया कांग्रेस भी बांग्लादेशी मुसलमानों को असम में आने की परोक्ष रूप से सुविधा प्रदान करती रही, जिसके चलते केवल असम में जनसंख्या अनुपात मुसलमानों के पक्ष में बदल रहा है। इसलिए पूर्वोत्तर की युवा पीढी ने 1980 के आसपास असम से अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों को बाहर निकालने के लिए आन्दोलन छेडा।

इस आन्दोलन से कांग्रेस को लगा कि अवैध बांग्लादेशी मुसलमान उसके हाथ से खिसक रहा है। उसे पुनः अपनी ओर आकर्षित करने के लिए 1983 में केन्द्र सरकार ने अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों को पहचानने और निकालने के लिए, अवैध घुसपैठी (ट्रिब्यूनल द्वारा पहचान) अधिनियम बनाया जिसे संक्षेप में IM(DT) act कहते हैं।

कांग्रेस इस अधिनियम से एक साथ दो शिकार करना चाहती थी। असमिया लोगों को इस क़ानून से कांग्रेस यह बताना चाहती थी कि वह बांग्लादेशी मुसलमानों को निकालने के लिए सचमुच गंभीर है और उधर बांग्लादेशी मुसलमानों को आश्वस्त करना चाहती थी कि उन्हें घबराने की ज़रूरत नहीं है, अब क़ानूनन उन्हें निकालना लगभग असम्भव ही हो जाएगा क्योंकि उपरोक्त अधिनियम अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों को भारत में से निकालने के लिए सहायक नहीं हो रहा था बल्कि प्रकारान्तर से उनको स्थाई रूप से यहीं बसने के लिए सहायता करता था।

लेकिन असम की आम जनता ने इस क़ानून को कांग्रेस सरकार द्वारा मुसलमानों, ख़ास कर अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों के तुष्टीकरण का एक प्रयास ही माना। यह अधिनियम बनाने के बाद सरकार ने 1983 में असम विधान सभा के चुनाव करवाए, जिसका बहिष्कार प्रदेश के सभी राजनैतिक दलों ने किया। मैदान में केवल कांग्रेस और कम्युनिस्ट थे। लगभग 33 प्रतिशत मतदान हुआ।

लेकिन ज़ाहिर है यह सरकार जनाधार पर टिकी हुई नहीं थी। अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा। अन्ततः 15 अगस्त 1984 को आन्दोलनकारियों और सरकार के बीच एक समझौता हुआ, जो असम समझौता के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अन्तर्गत तय हुआ कि 1971 के बाद जो बांग्लादेशी असम में घुसे हैं उन्हें निकाला जाएगा। इस प्रकार 6 साल से चल रहा असम आन्दोलन समाप्त हुआ। 1983 में चुनी गई विधान सभा भी बच न सकी और इस प्रकार 1985 में नए सिरे से उसके लिए पुनः चुनाव हुआ।

लेकिन अब तक प्रदेश में मुस्लिम लाबी अतिरिक्त सक्रिय हो गई थी। साल 1985 तक आते आते मुसलमानों को लगने लगा था कि असम में अब उनको अपनी राजनीति करने के लिए कांग्रेस के आवरण की जरुरत नहीं है। वैसे भी अब तक असम में अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों की संख्या इतनी हो गई थी कि वे वहां की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा सकते थे। इसलिए 1985 में मुसलमानों ने यूनाईटड माईनोरिटी फ़्रंट बनाया और उसी वर्ष हुए चुनाव में विधान सभा की सत्रह सीटें जीत लीं।

इन चुनावों में पहली बार कांग्रेस हार गई थी और सत्ता बांग्लादेशियों को निकालने के लिए चलाए गए आन्दोलन में से जन्मी असम गण परिषद के पास खिसक आई। लेकिन अवैध बांग्लादेशियों को निकालने के लिए 1983 के क़ानून की प्रकृति के चलते न तो असम गण परिषद बांग्लादेशी मुसलमानों को निकाल पाई और न ही पार्टी के भीतर ही एकता रख पाई। ऐसी हालत में कांग्रेस बांग्लादेशी मुसलमानों को यह समझाने में सफल हो गई कि उन्हें अपनी रक्षा के लिए इधर उधर भागने की जरुरत नहीं है।

कांग्रेस अभी भी बांग्लादेशी मुसलमानों को सुरक्षात्मक क़ब्ज़ देने के लिए प्रतिबद्धित है। कांग्रेस के इस व्यवहार से यूनाईटड माईनोरिटी फ़्रंट असम की राजनीति में से अप्रासांगिक होवने लगा और 1996 में यह पार्टी केवल दो सीटें ही जीत सकी। 2001 के चुनावों तक आते आते यू एम आई चुनावों में अप्रांसांगिक हो गई।

लेकिन असम के ही एक युवा सर्वानन्द सोनोवाल, जो आजकल भाजपा के सांसद और मोदी सरकार में राज्यमंत्री हैं, समझ गए थे कि असम में बांग्लादेशी मुसलमानों को सुरक्षा कवच तो आई एम( डी टी) अधिनियम 1983 प्रदान करता है जिसे केवल दिखाने मात्र के लिए कांग्रेस ने इन बांग्लादेशियों को निकालने के लिए बनाया है। पूरे पूर्वोत्तर भारत में अवैध घुसपैठ करने वाले मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती जा रही है, उससे आभास होने लगता है कि किसी दिन असम का शासन इन अवैध बा।गलादेशी मुसलमानों के हाथ में भी आ सकता है।

सर्वानन्द ने इस अधिनियम को चुनौती देते हुए न्यायालय का सहारा लिया। जुलाई 2005 में उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को ग़ैर क़ानूनी ठहरा कर निरस्त कर दिया। उच्चतम न्यायालय का मत था कि यह क़ानून परोक्ष रूप से अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को असम में बसाने के लिए बनाया गया है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के बाद असम के लोगों को तो लगने लगा कि अब अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों को निकालने का रास्ता साफ़ हो गया है लेकिन बांग्लादेशी मुसलमानों को लगा कि अब उनके लिए छिप कर नहीं बल्कि सीधे सीधे दो हाथ कर लेने का समय आ उपस्थित हो गया है।

इस निर्णय से प्रदेश की राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल गईं। बांग्लादेशी मुसलमानों को बाहर निकालने का काम तो न कांग्रेस को करना था और न ही बह उसके एजेंडा पर था। लेकिन बांग्लादेशी मुसलमानों ने स्वयं को प्रदेश की राजनैतिक शक्ति के तौर पर स्थापित करना शुरु किया और वे किसी सीमा तक सोनिया कांग्रेस का दामन छोड़ कर स्वयं अपनी अलग पार्टी बनाने की दिशा में अग्रसर होने लगे।

अजमल बदरूद्दीन ने इसमें धन और बल दोनों ही मुहैया करवाए। बदरूद्दीन काफ़ी लम्बे अरसे से असम के अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों को संगठित करने का प्रयास कर रहा था। क्योंकि असम का मुख्यमंत्री या दूसरा सादुल्ला बनने का उसका सपना बांग्लादेशी मुसलमानों की संख्या बढ़ने पर ही पूरा हो सकता था।

बदरूद्दीन ने 2005 में असम में बांग्लादेशी मुसलमानों का असम यूनाईटड डैमोक्रेटिक फ़्रंट नाम से एक राजनैतिक दल खड़ा किया। यही दल आजकल आल इंडिया यूनाईटड डैमोक्रेटिक फ्रंट के नाम से जाना जाता है। यू एम आई के ज़्यादा लोग भी इसी में शामिल हो गए। 2006 में AIUDF ने विधान सभा की 10 सीटें जीत कर 9.3 प्रतिशत मत प्राप्त किए। 2011 के विधान सभा चुनाव में इसकी सीटों की संख्या 18 हो गई और प्राप्त मतों का प्रतिशत 12.87 हो गया। 2014 के लोकसभा चुनावों में तो इस पार्टी ने चमत्कार ही कर दिया। लगभग 15 प्रतिशत मत प्राप्त कर इसने लोकसभा की तीन सीटें झटक लीं।

2016 के विधान सभा चुनावों तक आते आते बदरूद्दीन का गणित साफ और सीधा हो गया। यदि विधान सभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले तो वह सौदेबाज़ी करने की बेहतर स्थिति में आ सकता है और इसी सौदेबाज़ी के बलबूते मुख्यमंत्री बन सकता है। ध्यान रहे असम में बांग्लादेशी मुसलमानों की इतनी ज़बरदस्त घुसपैठ हुई कि उसके 27 जिलों में से ग्यारह ज़िले अब मुस्लिम बहुल बन चुके हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार असम में मुसलमानों की संख्या 34.22 प्रतिशत हो गई है।

लेकिन 2016 के विधान सभा चुनाव ने सोनिया कांग्रेस और अजमल बदरूद्दीन की तथाकथित अखिल भारतीय यूनाईटड डैमोक्रेटिक फ़्रंट को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया। दोनों ही अपने आप को बांग्लादेशी मुसलमानों का हितैषी सिद्ध कर रही थीं। एक ने अब तक बांग्लादेशी मुसलमानों को पूर्वोत्तर में लाने और बसाने में सहायता प्रदान की थी तो दूसरे ने उन्हें राजनैतिक शक्ति प्रदान करना का सफल प्रयोग किया था।

दरअसल पिछले इतने वर्षों से बांग्लादेशी मुसलमानों को असम में बसने बसाने में सहायता करते करते सोनिया कांग्रेस की छवि भी इस बार मुसलमानों की पार्टी के रूप में ही बन गई। असम का बरपेटा अवैध बंगलादेशी मुसलमानों को वैध काग़ज़ पत्र दिलवाने का बहुत बड़ा केन्द्र बन गया। गुवाहाटी में जुमला प्रसिद्ध है कि जब ढाका में कोई बच्चा पैदा होता है, तभी उसका पंजीकरण बरपेटा में करवा दिया जाता है ताकि बड़ा होने पर उसको भारत का नागरिक सिद्ध करने के लिए कोई बाधा न आए। इस माहौल में असम में बांग्लादेशी मुसलमानों को दो पार्टियां अपनी हितकारी नज़र आ रहीं थीं। तरूण गोगोई की सोनिया कांग्रेस और बदरूद्दीन की एआई यूनाईटड डैमोक्रेटिक फ़्रंट।

1947 में सादुल्ला और ब्रिटिश सरकार की मुस्लिम परस्त चाल को गोपीनाथ बरदोलाई ने असफल किया था और 2016 में यह कार्य करने का भार भारतीय जनता पार्टी के नरेन्द्र मोदी के हिस्से आया था। इसमें असम की जनता तो एकजुट दिखाई दे ही रही थी विभिन्न जनजातियों के लोग भी इस अभियान में एकजुट होते नज़र आ रहे थे। क्योंकि अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों से ख़तरा केवल असम घाटी के लोगों को ही नहीं है, विभिन्न जनजातियों के आगे भी उनकी पहचान का संकट खड़ा हो गया है।

असम में बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ से केवल घाटी के असमिया ही चिन्तित नहीं हैं बल्कि पहाड़ों में रहने वाले विभिन्न जनजातियों के लोग भी उतने ही चिन्तित हैं। क्योंकि जनजाति इलाक़ों में बांग्लादेशी मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है और जनजातियों के अल्पसंख्यक हो जाने का ख़तरा पैदा हो गया है। बोडो और बांग्लादेशी मुसलमानों में भयंकर झगड़ा होता रहता है। इसमें अनेक लोग मारे जाते हैं।

अक्तूबर 2008 में बोडो और बांग्लादेशी मुसलमानों की आपस में भयंकर मारकाट हुई थी, जिसमें मुसलमानों ने पाकिस्तान के झंडे भी लहराए थे। बोडो लोगों को डर है कि वे अपने जंगलों में ही बेगाने हो रहे हैं। बांग्लादेशियों की एक दूसरी रणनीति भी बनी रहती है। वे जनजाति की लड़कियों से शादी कर लेते हैं और इस प्रकार सम्पत्ति के स्वामी भी बन जाते हैं। पिछले दिनों नागालैंड के दीमापुर में एक नगा कन्या को छेड़ने के आरोप में एक मुसलमान को पीट पीट कर मार डाला था।

मेघालय में खासी, जयन्तिया और गारो तीनों ही बांग्लादेशी मुसलमानों को लेकर उग्र हो रहे हैं। इसलिए असम के इन विधान सभा चुनावों में असम का भविष्य तो दांव पर लगा हुआ ही था, लेकिन पूर्वोत्तर के अन्य सात राज्य भी इस चुनाव की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं।

बांग्लादेशियों के पक्ष में चुनाव परिणाम ले जाने वाले रणनीतिकारों की कोशिश थी कि दोनों पार्टियां आपस में मिलजुल कर चुनाव लड़ें ताकि असम में राष्ट्रवादी ताक़तों को पराजित किया जा सके। यदि ये दोनों पार्टियां अलग अलग चुनाव लड़तीं हैं तो बांग्लादेशी मुसलमानों के वोट विभाजित हो जाएंगे और एक बार फिर असम में राष्ट्रवादी ताक़तें मज़बूत हो जाएंगी, जिसके चलते सादुल्ला का एजेंडा कभी पूरा नहीं किया जा सकेगा।

बदरूद्दीन का एक ही सपना था कि राष्ट्रवादी शक्तियों की प्रतीक भारतीय जनता पार्टी को किसी भी तरीक़े से असम की राजनीति के केन्द्र से दूर रखा जाए। सोनिया कांग्रेस और बदरूद्दीन का आपस में चुनाव पूर्व या चुनाव के बाद समझौता हो सकता था क्योंकि सोनिया कांग्रेस को इससे सत्ता प्रप्ति में सहायता मिलती है और बदरूद्दीन को असम को मुस्लिम बहुल बनाने में मदद मिलती है। इसलिए 2014 में मक्का से वापिस आकर उसने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि वे ऐसी कोई ग़लती नहीं करेंगे, जिसके कारण असम में भारतीय जनता पार्टी जीत जाए।

उसने कहा यदि ऐसा होता है तो अल्लाह उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा। इसलिए वे 2016 के चुनावों में हर संभव कोशिश कर रहे थे कि सोनिया कांग्रेस के साथ उनका उसी प्रकार समझौता हो जाए जिस प्रकार मुस्लिम लीग के सादुल्लाह का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ हुआ था। अन्तर केवल इतना ही था कि उस समय सादुल्लाह ने कांग्रेस का छोटा पार्टनर बनना स्वीकार कर लिया था लेकिन अजमल बदरूद्दीन सोनिया कांग्रेस का बड़ा पार्टनर बनना चाहता था।

बदरूद्दीन का तर्क था कि 1940 से लेकर 2016 तक ब्रह्मपुत्र में बहुत पानी बह चुका है और अब बंगलादेशी मुसलमानों के चलते असम में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 35 प्रतिशत हो चुकी है।

यह असम का सौभाग्य ही कहना चाहिए कि सोनिया कांग्रेस और बदरूद्दीन की पार्टी में सीटों के बँटवारे को लेकर समझौता नहीं हो सका। दोनों को विश्वास था कि बांग्लादेशी मुसलमान एक जुट होकर उसके साथ हैं, इसलिए छोटी हिस्सेदारी दूसरी पार्टी को मिलना चाहिए। सोनिया कांग्रेस और बदरूद्दीन में से छोटा कौन है, इसका निर्णय नहीं हो सका। सोनिया कांग्रेस बिहार में नीतिश के आगे, पश्चिमी बंगाल में सीपीएम के आगे अपने आप को छोटी पार्टी स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई लेकिन मानसिक रूप से असम के बदरूद्दीन के आगे छोटी पार्टी बनने के लिए तैयार नहीं हुई।

परन्तु असम के लिए ख़तरा फिर भी बना रहा। दोनों पार्टियां चुनाव के बाद मिल सकतीं थीं। इस स्थिति में बदरूद्दीन बांग्लादेशी मुसलमानों को साथ लेकर असम की राजनैतिक शतरंज की बाज़ी में अंतिम मोहरा चलने के लिए अवतरित हुए ताकि सालुद्दीन के 1947 के अधूरे एजेंडा को अब पूरा किया जा सके। पिछले आठ दस साल से वे अपनी इस राजनीति में कामयाब होते भी दिखाई दिए। लेकिन इन चुनावों में ऐसा लगता है कि असम के लोगों ने बदरूद्दीन की चौसर पर रखे सभी मोहरे ब्रह्मपुत्र में फेंक दिए हैं और सोनिया कांग्रेस व बदरुद्दीन अजमल को चुनाव के बाद मिलने लायक छोड़ा ही नहीं।

लेकिन यह कैसे हुआ? क्योंकि बांग्ला देशी मुसलमानों की राजनीति करने वाले दोनों दल अलग अलग लड़े। उनका अलग अलग लड़ना शायद असम के लिए वरदान बन गया। चुनाव परिणामों पर लाखों का सट्टा लगाने वाले अनुमान लगा रहे थे कि अन्ततः बांग्लादेशी मुसलमानों ने सोनिया कांग्रेस पर ही विश्वास किया और वे क़तारें बांध कर हाथ की ओर चल पड़े। लेकिन उनकी क़तारों को हाथ लहराते देख कर असमिया लोगों को पूरा विश्वास हो गया कांग्रेस ने अन्ततः बांग्लादेशी अवैध मुसलमानों को लेकर ही असम में राजनीति करने का मन बना लिया है, जिसके चलते असमिया और जनजाति के लोग राष्ट्रवादी ताक़तों के साथ खड़े हो गए।

चुनाव परिणामों में असम विधान सभा में सोनिया कांग्रेस को 26 और एआई यूडीएफ़ को 13 सीटें मिलीं हैं। यानि कुल मिला कर 39 सीटें। इतना ही नहीं बदरुद्दीन अजमल को ही असम के लोगों ने हरा दिया। अब सोनिया कांग्रेस और बदरूद्दीन के लोग एक दूसरे पर खुले आम आरोप लगा रहे हैं कि उसी के अहंकार के चलते असम में राष्ट्रवादी ताक़तों को बल मिला है, अन्यथा असम में मुस्लिम बांग्लादेशी रणनीति कामयाब हो जाती। बदरूद्दीन का दूसरा सादुल्ला बनने का सपना सचमुच टूट गया है। यह असम के लिए शुभ संकेत है।

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री