Home Business उपभोक्ता और महंगाई… अंतहीन बहस, नीति नदारद

उपभोक्ता और महंगाई… अंतहीन बहस, नीति नदारद

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उपभोक्ता और महंगाई… अंतहीन बहस, नीति नदारद
Consumer and inflation : endless debate, policy absent
Consumer and inflation : endless debate, policy absent
Consumer and inflation : endless debate, policy absent

उपभोक्ता को महंगाई का दंश आहत न करे यह चिंता राज्य की है। सरकारें लाखों जतन करती आ रही है, लेकिन मंहगाई डायन खाय जात है, उपभोक्ता और महंगाई का चोली-दामन का साथ है।

मंहगाई का इतिहास द्वितीय विश्‍व युद्ध से आरंभ हुआ ऐसा कहा जाता है। मंहगाई की ग्रंथि अंगे्रज हमें विरासत में सौंप गये थे। महंगाई छाया की तरह उपभोक्ता के साथ चलती है। महंगाई से उपभोक्ता को कैसे मुक्ति मिले इस चिंता में सरकारें दुबली होती रहती है। लेकिन मंहगाई का पिंड कैसे छूटे कदाचित इस तरह की नीति निर्धारण के लिए ठोस शक्ल में प्रयास नहीं हो पाते है।

अलबत्ता, दस वर्ष में सरकारी अमले के लिए वेतन आयोग बना दिया जाता है। रिपोर्ट आती है मंहगाई भत्ता बढ़ने की अनुषंसा के साथ आर्थिक विश्‍लेषक महंगाई डायन की सक्रियता की आषंका व्यक्त करने लगते है और बाजार की शक्तियां को मानो मूल्य सूचकांक गगनोन्मुखी करनें की दैवीय प्रेरणा मिल जाती है। महंगाई अपने पंख पसारती है।

सरकार पर उपभोक्ताओं का दबाव बढ़ता है। पिछले दिनों जब महंगाई की शिकायत पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के कान में पहुंची तो बड़ा दिलचस्प तर्क आया। एक केन्द्रीय मंत्री ने कहा कि महंगाई बढ़ने का कारण आम आदमी का दोनों वक्त भोजन करना है। दूसरे ने बात को आगे बढ़ाया तो कहा गया कि गरीब तबियत से भोजन करनें लगे है। महंगाई की जड़ पर प्रहार करनें की बात नहीं हुई। इसे विश्‍व व्यापी वेल बता दिया गया।

हाल के दिनों में तुअर की दाल की कीमतें 50 रू. किलों से बढ़कर 200 रू. तक पहुंची, तुअर ने डबल सेन्चुरी लगायी। राज्य सरकारें केन्द्र की ओर ताकनें लगी। केन्द्र सरकार विदेश से आयात करनें पर चिन्तित हो गई। उत्पादन आंषिक रूप से कम हुआ था, लेकिन इसकी वजह से दाम चार गुना बढ़ने की तार्किक संगति समझ से बाहर रही। जब केन्द्र सरकार ने राज्यों को जिन्स भंडार सीमा कानून पर अमल करनें के निर्देश दिया तो लाखों टन तुअर दाल बरामद हुई। उस दाल को जब्त कर उचित मूल्य पर वितरण करने का इंतजाम किया गया।

कनखियों से व्यापारियों ने कहा कि उनका स्टाक 150 रू. किलों किफायती रेट पर बेचनें में तीन गुना मुनाफा कमाने में कई माह लग जाते लेकिन राज्य सरकारों की छापों और जब्ती की कार्यवाही वरदान साबित हुई। मुनाफा भी कमा लिया और सरकार ने फर्ज अदायगी भी कर ली। आयातित दाल जब तक विक्रय केन्द्रों पर पहुंचेंगी दाल की नयी फसल तैयार हो जायेगी। लेकिन दाल के भाव सामान्य स्तर पर पहुंचेंगे उसकी गारंटी नहीं है।

केन्द्र सरकार ने दाल के संकट को समाप्त करनें की कार्ययोजना बनायी है। उत्पादन के लिए प्रोत्साहन और समर्थन मूल्य देने पर विचार हुआ है। इससे जरूर दाल संकट का समाधान होने की आश की जा सकती है। बाजार के मूल्य ऊपर उठते है तो उनका नीचे उतरना आसान नहीं होता। हर बार प्रसंगवश सरकार सेस लगाती है।

नया प्रभार मूल्य बढ़ा देता है। सेस वसूली बंद हो जाती है तो भी मूल्य कम करनें की तकलीफ स्टाॅकिस्ट और वितरक नहीं करता। चिंता सभी करते है लेकिन मंहगाई के विरूद्ध जेहाद छेड़ने की हिम्मत किसी के पास नहीं है, क्योंकि हित अपने-अपने है।

भारत एक परंपरावादी देश है, जहां सामाजिक सरोकार आदिकाल से चला आया है। यही वजह है कि हर कारोबार एक मिशन था। पुरातन काल से सामाजिक सरोकार, समन्वय की भावना थी, ग्राहक को दुकानदार भगवान के रूप में देखता रहा है। लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने ग्राहक और दुकानदार के बीच अब एमआरपी का रिश्‍ता बना दिया है।

न्यूनतम मूल्य अंकित किये जाते है, जिसका कोई अंकगणित नहीं है। उपभोक्ता से अधिकतम कितना और कौन वसूल सकता है, यह प्रैक्टिस विश्‍व व्यापी बन चुकी है। सरकारें भी इस एमआरपी की षिकार बन रही है। क्योंकि इसमें कमीषन, उपहार, विदेश यात्राएं भी शामिल होती है।

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को यह जानकर आशष्चर्य हुआ कि दवाईयों और चिकित्सीय उपकरणों के एमआरपी लागत मूल्य से चार गुना और इससे अधिक ऊंचे है। वेवजह ऊंची कीमतों को लेकर केन्द्र सरकार तीन बैठकें कर चुकी है। कंपनियों से उचित मूल्य निर्धारण करनें को कहा गया है। ऐसा कितनी बार हो चुका है और नतीजा क्या निकला? यह बताने की जरूरत नहीं समझी जाती।

डंकल प्रस्तावों का जब भारत में विरोध हो रहा था तब तत्कालीन पेरोकार और सरकार दिलासा दे रही थी कि इससे स्पर्धा बढ़ेगी, मूल्य कम होंगे और मंहगाई घटेगी। लेकिन देखने में इससे उल्टा नजर आ रहा है। बाजारवाद इस कदर हाबी है कि विज्ञापन बाजी के शोर में उपभोक्ता की आवाज खो गयी है।

मानवीय चेहरा गायब है। वायदा बाजार फ्यूचर ट्रेडिंग का खूब ढोल पीटा जा रहा कि इससे वाणिज्यक गतिविधियों का विस्तार होगा और बाजार में मुद्रा फ्लोट होगी। लेकिन आज उपभोक्ता के महंगाई के भंवर में फंसने का एक कारण वायदा बाजार, सट्टाबाजी बन चुकी है। देष में जितना उत्पादन नहीं होता उससे अधिक के सौदे कर लिये जाते है। फसल आने के पहले सट्टाबाजी हो चुकती है।

फसल आने पर उत्पादक को न्यूनतम मूल्य मिलता है। किसान पर देनदारी का दबाव होता है जिसके कारण फसल खलिहान से बेचना उसकी विवष्ता होती है। लेकिन सारा उत्पादन फ्यूचर ट्रेडिंग में कैद हो जाता है। बाजार में कृत्रिम उत्पादन उस समय पैदा किया जाता है जब मांग और पूर्ति का असंतुलन पैदा हो चुकता है। सटोरिये 1300 रू. क्विंटल खरीदा गया गेहूं 2 हजार रू. क्विंटल में बेचने लगते है।

उत्पादक तो ठगा जा चुका है अब बारी उपभोक्ता के आर्थिक शोषण की भट्टी में पिसने की आती है। आर्थिक उदारीकरण के प्रणेता कहते है कि इस्पेक्टर राज समाप्त, मिनीमम गवर्नेंस लागू। मतलब साफ है कि लूट का तंत्र सक्रिय है। वायदा बाजार में हुई तिजारत से न केवल उपभोक्ता ठगे जाते है अपितु सरकारें भी शुल्क से वंचित होती है, कर अपवंचन का दौर तेज हो जाता है।

आज देश में काष्तकार खेती के क्षेत्र से पलायन के लिए मजबूर है। हजारों किसान मौत को गले लगा चुके है। क्योंकि रासायनिक उर्वरक और पौध सरंक्षण औषधियां, आयातित बीज ने खेती की लागत कई गुना बढ़ा दी है। महंगाई के दौर में मंहगाई जहां हजार गुना बढ़ जाती है, किसान की फसल का मूल्य दहायी में बढ़ता है। किसान को गेहूं का समर्थन मूलय 1550 रू. क्विंटल दिया जाता है, जबकि लागत दो गुना आती है।

सरकार का तर्क है कि यदि खाद्यान्न फसल का मूल्य बढ़ाया गया तो महंगाई बढ़ेगी। उपभोक्ता के सामने समस्या आयेगी। तर्क ठीक है, लेकिन नैतिकता विहीन है। किसान की चिंता करनी होगी। उसकी लागत को देखते हुए भले ही गेहूं का मूल्य न बढ़ाया जाये सरकार लागत के मुताबिक किसान के बैंक खाते में राषि सीधे जमा करके भरपाई कर सकती है।

मंहगाई में स्वार्थ किसका है, यह एक भुल-भुलैया है। आर्थिक विषेषज्ञ मानते है कि डिमांड एंड सप्लाई में अंतर आना मूल्य वृद्धि का सबब है। लेकिन असल बात यह है कि यह मार्केट गेम है। उत्पादक को मिलने वाली कीमत और वितरक, भंडारक को मिलने वाली कीमत में जमीन-आसमान का अंतर क्यों होता है?

इस सवाल पर गौर करनें की आवश्‍यकता समझना होगी। फिर थोक और खुदरा मूल्य में अनुपातिक अंतर क्यों नहीं होता। थोक मूल्य सूचकांक बताकर उपभोक्ता को दिलासा दे दिया जाता है। यह खेल वैसा है जैसा आपात काल में होता था। आकाशवाणी से घोषणा की जाती थी कि फाईन राइस तीन रू. किलो मिलता है। जब दुकानदार से मंहगे मूल्य पर बहस होती थी तो वह टका सा जबाव दे देता था कि आप फाईन राइस आकाशवाणी केन्द्र से जाकर ले आओ।

हम आर्थिक विकास का ढोल पीटकर कहते है कि रोजगार बढ़ रहा है लेकिन यथार्थ में ऐसी स्थिति नहीं होती। कृषि क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र में वेगेज मजदूरी में भी जमीन-आसमान का अंतर होता है। यह विसंगति और असंतुलन का कारण इस शोषण चक्र के विरूद्ध जन जागरूकता का अभाव, राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी और आर्थिक उदारीकरण का सामना करनें के लिए स्वदेशी विधायिका में साहस की कमी।

विष्व के अनेक देष विष्वव्यापी आर्थिक उदारीकरण के प्रति या तो सचेत हो चुके है अथवा हथियार डाल चुके है। विष्व व्यापार संगठन ने तो किसानों को मिलने वाली सब्सीडी समर्थन मूल्य पर भी प्रतिबंध लगाकर भारत की कृषि को समाप्त करनें का दांव खेला था।

यूपीए सरकार तर्कहीन हो चुकी थी और समयावधि पर इसे बंद करने का समझौता कर चुकी थी। लेकिन केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सरकार ने नया अवतार लेकर दिखा दिया और कहा कि जब तक भारत में किसानी आर्थिक लाभ का व्यवसाय नहीं बनती सब्सीडी समर्थन मूल्य के रूप में प्रतीकात्मक सहायता किसान को देना बंद नहीं की जा सकती। दुनिया के तमाम देषों ने भारत की पहल की तरफदारी की।

डब्ल्यूटीओ (विश्‍व व्यापार संगठन) को कदम वापस लेना पड़े।। भारत के इस वेबाक तर्क पर विश्‍व व्यापार संगठन को पुर्नविचार करना पड़ा। गोया हमें ठोस कदम उठाने की दरकार है। मोदी सरकार के इस कदम से भारतीय कृषि को संजीवनी मिली है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में बेलगाम महंगाई और एमआरपी के हथकंडों पर लगाम लगाने के लिए संगठित अभियान चलाकर सरकार को इस दिषा में महंगाई कम करनें के लिए प्रभावी कदम उठाने हेतु सजग करनें की दरकार है।

: भरतचन्द्र नायक