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अमरीका में सत्ता परिवर्तन के साथ एच 1 बी वीजा पर शिकंजा कसेगा?

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अमरीका में सत्ता परिवर्तन के साथ एच 1 बी वीजा पर शिकंजा कसेगा?

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भारत और चीन से हाई स्किल्ड लेबर के नाम पर यूएस वीजा एच 1 बी को लेकर सवालिया निशान खड़ा हो गया है। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के साथ ही अमरीकी युवाओं में भारत और चीन, दोनों देशों के खिलाफ एक नफरत का माहौल बन गया है।

अमरीकी युवाओं में बेरोजगारी को लेकर राष्ट्रपति चुनाव में एच 1 बी वीजा एक चुनावी मुद्दा था। तब डोनाल्ड ट्रंप ने एच 1 बी वीजा को खत्म किए जाने की जोरदार वकालत तो की थी, लेकिन भारत से ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी कर अमरीका में 2 साल तक आगे पढ़ाई करने वाले उन सभी युवाओं को एच 1 वीजा के लिए रोजगार उपलब्ध कराए जाने पर सहमति दे दी थी।

अभी 20 हजार युवाओं को प्रतिवर्ष सरकारी-गैर सरकारी अमरीकी कंपनियों में रोजगार दिए जा रहे हैं। लेकिन अब सत्ता परिवर्तन के साथ एच 1 बी वीजा के रूप में रोजगार लेने अमरीकी कंपनियों और देने वाली भारतीय कंसल्टेंसी कंपनियों की नींद उड़ गई है।

ध्यान रहे, 2016-2017 के सत्र के लिए 7 अप्रेल, 2016 तक एच 1 बी और एच 1 वीजा में निर्धारित 85 हजार स्थानों के लिए रिकार्ड दो लाख 36 हजार से अधिक आवेदन स्वीकार किए गए थे, जिनमें आधे से ज्यादा आवेदन भारत और चीन से हासिल हुए थे, जबकि यूरोप, जापान और दक्षिण कोरिया और लेटिन अमरीका से अपेक्षाकृत कम आवेदन मिले थे।

अमरीकी कंपनियों के लिए एच 1 बी वीजा पर निर्धारित 65 हजार रोजगारों के लिए चौथे साल आवेदकों का चयन हाई स्किल के आधार पर नहीं, कंप्यूटरीकृत लाटरी के आधार पर किया गया था, जिन्हें अब रोजगार के मौके दिए जा रहे हैं।

एच 1 वीजा के लिए अमरीका में रहते हुए न्यूनतम एक साल तक एमबीए अथवा किसी अन्य विधा में मास्टर डिग्री हासिल करना और अमरीकी कंपनी में तीन से छह महीनों के लिए इंटर्नशिप कर स्पांसरशिप लेटर लेना अनिवार्य है।

अमरीका में अस्थाई तौर पर छह सालों के लिए रोजगारोन्मुख एच 1 बी इमीग्रेशन वीजा देखने-सुनने में लुभावनी लगती है। न्यूयार्क टाइम्स की मानें तो इमीग्रेशन एक्ट की मौजूदा खामियों का लाभ उठाते हुए भारत और चीन की कुछेक बड़ी कंसलटेंसी कंपनियों और ला फर्मों ने अमरीकी कंपनियों के साथ मिल कर एच 1 बी प्रक्रिया को ही हाईजैक कर लिया है।

ये कंसल्टेंसी कंपनियां बड़ी तादाद में ट्रेनी के रूप में हर साल भर्तियां करती हैं। फिर अमरीकी कंपनियों की जाब प्रोफाइल के अनुरूप उनकी रिबूटिंग करती हैं। इस प्रक्रिया में आई टी, वित्त प्रबंध, फार्मेसी में स्नातक और स्नातकोत्तर तक की शिक्षा हासिल कर चुके युवक-युवतियों को अमरीकी समय सारिणी के अनुसार देर रात गुडग़ांव, नोएडा, बेंगलूर, चेन्नई और हैदराबाद आदि स्थानों पर ट्रेंड किया जाता है।

एक बार स्पांसरशिप लेटर मिलने के बाद कंसल्टेंसी कंपनियां अपनी ला फर्मों से पासपोर्ट, वर्क प्रोफाइल और संबंधित दस्तावेज/पेपर वर्क तैयार करवाती हैं। फिर एक से सात अप्रेल के बीच हजारों आवेदनों को अमरीकी यूएससीआईएस सर्विस सेंटर में जमा करवाती हैं।

इस प्रक्रिया में एच 1 वीजा मिलने तक युवक मामूली वेतन पर इंटर्नशिप करते हैं। ये ही युवक एच 1 बी लाटरी में नंबर निकल पाने की इंतजार करते हैं। एच 1 बी नियमानुसार एंटरी लेवल पर एक नए रिक्रूट को न्यूनतम 60 हजार डालर सालाना वेतन मिलता है, जबकि एक अमरीकी नागरिक को उसी जाब प्रोफाइल के लिए कम से कम करीब 84 हजार 500 डालर सालाना वेतन और सोशल सिक्युरिटी के तहत हेल्थ इंश्योरेंस देना अनिवार्य है।

एक अमरीकी कंपनी को शुरूआत में 50 प्रतिशत आरक्षण स्थानीय अमरीकी नागरिकों को देना अनिवार्य है, लेकिन पिछले दिनों अमरीकी युवाओं की बड़े स्तर पर छंटनी कर एच 1 बी वीजा पर आए भारतीयों को वरीयता दी गई है।

इसका कारण यह बताया जाता है कि कंपनियों को ऐसे में न केवल कम वेतन देना पड़ता है, बल्कि ग्रीन कार्ड के मोह में भारतीय भी देर रात तक काम करते हैं और ग्रीन कार्ड मिलने तक छंटनी की तलवार से बचे रहते हैं।

अमरीकी शिक्षित युवाओं पर स्टूडेंट लोन ( डेढ़ खरब डालर ) के बढ़ते दबाव को सता के गलियारे में महसूस किया जा रहा है। इसकी ताप से भारत में चीप लेबर की रिबूटिंग में लगी चार नामी साफ्टवेयर कंसलटेंसी कंपनियों के अमरीकी एजेंटों की नींद उडऩे लगी है।

न्यूयार्क टाइम्स सहित अमरीका के अन्य बड़े अखबारों की मानें तो पिछले तीन चार सालों से स्किल्ड लेबर के नाम पर एच 1 बी कोटे में चीप लेबर का जो यह गोरखधंधा चल रहा है, उससे अमरीकी युवाओं में घोर निराशा है।

पिछले तीन- सालों की कंप्यूटरीकृत गणना पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलेगा कि करीब आधे एच 1 बी जाब भारत की चार बड़ी कंपनियों टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो और एचपी सहित 20 ग्लोबल कंपनियों की झोली में गए हैं, जबकि शेष अन्य दस हजार कंपनियों और वैयक्तिक रूप से आवेदकों को एच 1 बी आफर मिल सके हैं।

इसके विपरीत बड़ी कंपनियां जैसे माइक्रोसाफ्ट, आईबीएम, याहू, गूगल, ओरेकल और फेसबुक आदि एच 1 बी वीजा पर आवेदकों को एंट्री लेवल पर डेढ़ गुणा वेतन, सोशल सिक्युरिटी सहित बेहतरीन मेडिकल इंश्योरेंस देने के साथ एक निर्धारित अवधि में ग्रीन कार्ड के लिए तैयार करती हैं। लेकिन इन कंपनियों से स्पांसरशिप लेटर लेना सहज नहीं है।

अमरीकी कांग्रेस ने आर्थिक विकास के मद्देनजर सन 1998 में इमीग्रेशन एक्ट के तहत छह सालों के लिए रोजगारोन्मुख एच 1 बी वीजा दिए जाने का प्रावधान किया था। उस समय अमरीकी कंपनियों के सामने दो शर्तें रखी गईं थीं।

एक, सभी छोटी- बड़ी कंपनियों को विदेशी नागरिक को स्पांसरशिप लेटर देते समय एंटरी लेवल पर न्यूनतम 60 हजार डालर प्रति वर्ष वेतन देना होगा। दूसरे, अमरीकी रोजगार हितों के मद्देनजर 50 प्रतिशत स्टाफ का आरक्षण करना अनिवार्य होगा।

ग्लोबल कंपनियों ने मौजूदा नियमों में खामियों का लाभ उठाया। आर्थिक मंदी (2008 से 2011 ) में बेरोजगारी बढ़ी तो, बड़े स्तर पर छंटनी हुई। अब स्थितियां सुधरी हैं तो रोजगार की मांग और वेतन में बढ़ोतरी को लेकर युवाओं में असंतोष भड़कने लगा है।

इस पर कांग्रेस में एच 1 बी वीजा पर अंकुश लगाने के लिए कांग्रेस के दोनों सदनों में एच 1 बी वीजा में लचीलेपन की निंदा की गई और 18 दिसंबर, 2015 को अगले दस सालों के लिए वीजा फीस 2 हजार से बढ़ा कर चार हजार डालर कर दी गई जबकि एच 1 वीजा फीस 4500 डालर कर दी गई है।

इस पर भारतीय कंसल्टेंसी कंपनियों ने मोदी सरकार से बीच-बचाव करने और फीस घटाए जाने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन हुआ कुछ नहीं।