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अहंकार के आभूषण और ईर्ष्या के संस्कार

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अहंकार के आभूषण और ईर्ष्या के संस्कार

सबगुरु न्यूज। चन्द्रमा जब अपनी चांदनी फैलाकर अपने संस्कार व संस्कृति की छाप सितारों की दुनिया पर छोड कर अहंकार सें मुस्कुराता है तो प्रकृति उस पर ग्रहण लगाकर उसकी छवि को एक बार में ही धूमिल कर देती हैं और उसी तरह से फूलों को अपनी सुगन्ध व ख़ूबी का अंहकार होता है तो उसे मुरझा कर सूखा देती है।

अहंकार के आभूषण, संस्कार व संस्कृति को गुलामी की दासता में जकड देते हैं क्योंकि उनकी रचना सशक्त बली व्यक्तियों के द्वारा की जाती है जो सभी व्यवस्था को अंजाम केवल अपने हितों के लिए देते हैं।

प्रकृति के संस्कार सहज, शांति, दया, दान, उपकार है इन्हें ग्रहण नहीं किया जाता क्योंकि इनमें सभी का कल्याण छुपा है।

सशक्त व्यक्ति केवल अपने ज्ञान के पुलिंदों को थोपना चाहता है और सभी के कल्याण का राग अलाप व्यक्ति में भेद करा समाज का विखंडन कर देता है और अपने को ही सर्वोपरि मान कर कुछ लोगों के कल्याण तक ही सीमित रह समाज को ऊंच नीच के भेद मे बांट देता है।

अपने बल बूते पर कोई सशक्त बनकर जब सम्पूर्ण जीवों का कल्याण कर अपना नाम रोशन कर लेता है तो व्यक्ति उसका चारों ओर से घेराव कर उसे हर तरह से कलंकित कर बदनामी का बीड़ा झेल उसे बदनाम करने का नाकाम प्रयास करते हैं।

कठिनाइयों को पार कर आरोपों से मुक्त हुआ व्यक्ति फिर परमात्मा के शरण में जाकर कहता है कि ईश्वर इन्हे माफ़ कर देना।

संत जन कहते हैं कि हे मानव तू अपने झूठे अहंकार को छोड़ ओर मानव के कल्याण के लिए काम कर। यदि तुझे फिर भी आंच आतीं है तो मैं तेरे सब गुनाह माफ़ कर दूंगा।

सौजन्य : भंवरलाल