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महलों की छांव तले भटकती दो रूहें

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महलों की छांव तले भटकती दो रूहें

सबगुरु न्यूज। महलों के बाहर उसकी पड़ती छांव तले बसी एक छोटी सी बस्ती, पास ही एक रास्ता और उसके  किनारे बनी कुछ छोटी दुकानें जो रोजमर्रा की जरूरत पूरी करतीं।

आने वाले राहगीरों के लिए रास्ते किनारे एक रोटी तथा चाय का ढाबा और उसमें बैठे दो मुसीबत के मारे राहगीर खाना खा रहे थे और एक दूसरे को देख मुस्कुरा रहे थे। दोनों में से एक बुजुर्ग व दूसरा अधेड़ था।

बुजुर्ग बोला कुछ मीठा हो जाए तो अधेड़ ने कहा ठीक है। वहां मीठा भी एक ही था, बेसन के पीले लड्डू। दोनों ने दो लड्डू खाए फिर दुकान वाले को हिसाब चुकाने लगे। दुकान वाले ने बड़ी नम्रता से कहा आज हमारे यहां विशेष भोजन बना है। आज के दिन सबका जीमण महल वालों की तरफ से निशुल्क है। महल में कोई मांगलिक कार्य है। महल का नाम सुनते ही वे दोनों वहां सें चले चले गए।

कई बरस बीत गए। सब कुछ बदल गया लेकिन नहीं बदला उन दोनों रूहों का खयाल। उन्हें याद आया कि वो हो ना हो वह किसी की चाल थी या उनकीं व्यवस्था का एक तरीका। जो भी था मानवता के प्रति अपराध था।

महलों में बज रहे शहनाई ढोल नगाड़े। आलीशान तरीके से महलों में की गई एक सजावट। वहां आते शाही लिबास पहने स्वयंभू राजा व रानी, राज कुमार व राज कुमारी। उनकी अगवानी करते हुए उनके सेवक। ऐसा लग रहा था मानो कि कोई प्राचीन सभ्यता के युग के जीवंत नजारे दिखाई दे रहे थे।

इन सब के बीच सम्पूर्ण कार्य के सूत्रधार जो यह सब कुछ नजारा देख बहुत प्रसन्न हो रहे थे और मेहमान व मेजबान की हैसियत का शाही प्रदर्शन उन्हें स्वयं को भी गौरवान्वित कर रहा था।

इसी बीच कोई आता है और उन दो बुजुर्ग व अधेड़ व्यक्ति को महलों से बाहर ले जाता है तथा जलपान व खाने के लिए उन्हें उस छोटी बस्ती के ढाबे में छोड़ कर चला जाता है। दोनों जहरीली मुसकान के साथ भोजन ग्रहण करते हैं ओर वर्षो तक उस जीवंत घटना को याद कर रूहे बन जाते हैं ओर रात महलों की छांव तले भटकते रहते हैं।

वे रू​हें संदेश देती है कुछ व्यक्ति सभ्यता व संस्कृति के अच्छे व्यवहार प्रतिमान सीख कर भी अपने अहम के कारण दूसरों को छोटा मान बर्बरता पूर्वक व्यवहार कर अपनी जंगली सभ्यता का परिचय देते हैं और जब स्वार्थ पडता है तो इनकी अगवाही में पलक पावडे बिछा सम्मान देता है, जब तक अपना स्वार्थपूरा नहीं होता।

जैसे ही स्वार्थ की पूर्ति हो जाती है तो अपने भाग्य का लिखा मान उन्हें फिर लात मार देता है। इस तरह सामाजिक कुरीतियों को सुधारने के बाद भी उनका अंत नहीं होता ओर ये समाज  सामजिक विषमता के जाल मेंं फंस जाता है तथा हम सब एक हैं का नारा औंधे मुह गिर जाता है। फिर रूहें भी अपना बदला लेने का कार्य शुरू कर देतीं हैं।

पीड़ित रूहे ऐसे व्यक्तियों को हर क़दम पर परेशान कर उनके कार्यो को धराशायी कर उन्हें हर तरह से तोड़ देती है फिर भी ऐसे मानव अंहकार वश अन्दर के मन में पछताते हुए बाहर एक बनावटी हंसी हंसकर भी बडा समझने की भूल करते रहते हैं।

सौजन्य : भंवरलाल