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नियम आबद्ध हैं प्रकृति की तमाम शक्तियां

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नियम आबद्ध हैं प्रकृति की तमाम शक्तियां
nature and earth has its own set of rules
nature and earth has its own set of rules
nature and earth has its own set of rules

अस्तित्व एक सुसंगत व्यवस्था है। वैज्ञानिक प्रकृति के नियम खोज रहे हैं। प्रकृति अराजक है भी नहीं। सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी सहित प्रकृति की तमाम शक्तियां नियमआबद्ध हैं। दर्शन और विज्ञान के विद्वान प्रकृति के सभी नियमों को जानने के लिए प्रयासरत हैं। ऋग्वेद से लेकर आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफेन हाकिंग तक प्रकृति के आधारभूत नियमों पर माथापच्ची कर रहे हैं।

ऋग्वेद में प्रकृति के आधारभूत नियमों को ‘ऋत’ कहा गया है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या प्रकृति का सारा कार्य व्यापार नियम आबद्ध ही है? क्या प्रकृति नियमों से ही संचालित है? क्या कोई सृष्टा है? यदि सृष्टा या ईश्वर है तो उसे नियम के बाहर जाकर काम या सृजन करने की कितनी स्वतंत्रता रही है? और है? हाकिंग का मत दि थ्योरी ऑफ एवरीथिंग में ऐसे ही प्रश्नों में प्रकट हुआ है क्या अस्तित्व स्वयं उगा है या कोई सृष्टा है?

सृष्टा है तो क्या सृजन के बाद भी उसका प्रभाव अभी जारी है? हाकिंग ने सृष्टि (या ईश्वर) को बनाने वाले सृष्टा का भी मूलभूत प्रश्न उठाया है। हाकिंग जैसा ही मूलभूत प्रश्न वृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी ने याज्ञवल्क्य से किया था। याज्ञवल्क्य ने सृष्टि का मूल कारण ब्रह्म बताया था। गार्गी ने पूछा कि तब ब्रह्म का कारण क्या है? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि यह अतिप्रश्न है अर्थात ब्रह्म का कारण भी ब्रह्म है।

संसार कर्मक्षेत्र है। कर्मक्षेत्र में तमाम जटिलताएं हैं। जानकारियां जरूरी हैं। इससे जीवन सरल होता है। विज्ञान और दर्शन से प्राप्त जानकारियां और भी जटिल हैं। हाकिंग ने आशा व्यक्त की है कि ब्रह्माण्ड के संपूर्ण नियम आगे खोजे जाएंगे और उन्हें सबके लिए ज्यादा नहीं रूपरेखा के रूप में ही समझाना संभव होगा। हाकिंग और गार्गी के प्रश्न एक जैसे हैं।

प्रकृति के सामान्य नियम, सृष्टा की क्षमता और शक्ति जानने की जिज्ञासा भी ऋग्वेद और हाकिंग में एक जैसी है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा से प्रश्न है कि जगत् आपने बनाया तो आप कहां बैठे? जगत था नहीं, आप निर्माण सामग्री कहां से लाए? तब सृष्टि थी नहीं। हाकिंग ने भी ऐसे ही प्रश्न उठाए हैं। आधारभूत विषय है संपूर्ण ज्ञान।

गीता (अध्याय 14.33) में ज्ञान प्राप्ति को सभी यज्ञों कर्मों से श्रेष्ठ बताया गया है। सो क्यों? श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि अन्तत: सभी कर्मों का अवसान ज्ञान में ही होता है – सर्वं कर्म अखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते। सारी आपाधापी सत्य की यात्रा है। सत्य मिला, ज्ञान आया। दुख गया। मोह गया। जीवन प्रसाद से भर गया।

भारत ज्ञान अभीप्सु रहा है। ज्ञान और दुख एक साथ नहीं रह सकते। सुख-दुख आभासी सत्य हैं। वे सत्य नहीं होते। वे भ्रम जैसे हैं। जैसे प्रकाश किरणों की उपस्थिति में अंधकार नहीं टिकता, वैसे ही ज्ञान दीप्ति में दुख। इसलिए ज्ञान प्राप्ति भारत की सनातन आकांक्षा रही है। यहां ज्ञानियों का आदर रहा है। ज्ञान देने वाले आचार्य, गुरू या शिक्षक देवता कहे जाते रहे हैं।

गीता (4.34) में ज्ञान प्राप्ति के लिए आचार्य या गुरू के पास जाने का सुझाव है। इसके पहले कठोपनिषद् में भी ‘उतिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्नि बोधत – उठो, जागो, वरिष्ठों से बोध प्राप्त करो’ के निर्देश हैं। लेकिन गीता की शब्दावली ध्यान देने योग्य है। कहते हैं तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया – उस ज्ञान को गुरू से विनयीभाव से सेवा करते हुए प्रश्नों प्रतिप्रश्नों द्वारा प्राप्त करो।

प्रणिपातेन में नमस्कार, श्रद्धा विनम्रता और समर्पण एक साथ हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रद्धा और समर्पण की महत्ता है। शिक्षण शुल्क से ही काम नहीं चलता। श्रद्धा और विनम्रता के अभाव में शिष्य की ओर ज्ञान का प्रवाह सामान्य और सरल नहीं होता। शिष्य सामान्य व्यक्ति नहीं होता। गुरू सामान्य हो तो काम चल सकता है। शिष्य का चित्त ग्राह्यता से भरापूरा लेकिन ज्ञान भंडार प्राप्त करने के लिए पवित्र रिक्त होना चाहिए।

शिष्यत्व अनूठी साधना है। यहां भावप्रवण विनम्रता और बोधपूर्ण आस्तिकता एक साथ है। सामान्यतया भावुक प्रश्नाकुल और तार्किक नहीं होते। तार्किक और प्रश्नाकुल भावुक नहीं होते लेकिन शिष्य में दोनों होने चाहिए। प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया होना आसान नहीं। लेकिन ऐसा होने के लिए किसी साधना या कठोर प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। सरल चित्त तरल होता है और तरल भावुक। सरल तरल चित्त में प्रश्नों प्रतिप्रश्नों की स्वाभाविक तरंगें भी होती हैं।

गीताकार ने ज्ञान प्राप्ति के लिए विनम्रता और तार्किकता दोनों को जरूरी बताया है। संसदीय प्रश्नों या टेलीविजन की बहसों में प्रश्नों के साथ आस्तिकता और विनम्रता नहीं होती। इसलिए उत्तरों में ज्ञान की प्रामाणिकता नहीं होती। प्रश्न और विनम्रता का मिथुन जरूरी है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि ऐसी विनम्र प्रश्न प्रतिप्रश्न सेवाभाव वाली जिज्ञासा पर तत्वदर्शी विद्वान आपको ज्ञान देंगे मार्ग दर्शन करेंगे – ज्ञानिन: तत्वदर्शिन:।

इंटरनेट ज्ञान का आधुनिक स्रोत है। यहां करोड़ों जानकारियां हैं। क्या इसे महागुरू या आचार्य कह सकते हैं? नहीं। इंटरनेट से प्राप्त जानकारियां शिष्य विशेष के लिए नहीं हैं। बेशक वे असामान्य हंै लेकिन वे प्रश्नकर्ता के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। वे यांत्रिक हैं। यहां प्रश्नकर्ता और यंत्र के मध्य कोई संवेदनशील सम्बन्ध नहीं है। यंत्र का अधिकतम विस्तार तंत्र ही हो सकता है और इण्टरनेट एक विशाल तंत्र है।

इण्टरनेट से प्राप्त जानकारियां तंत्र हैं और आचार्य से प्राप्त जानकारियां मंत्र। बोध और प्रीति का चरम मंत्र होता है और मंत्र प्रेम और ज्ञान रस से भरीपूरी प्राणवान कविता है। यंत्र और मंत्र का अंतर सुस्पष्ट है। यंत्र ज्ञान हस्तांतरण का उपकरण ही हो सकता है। वह बोध जागरण का मंत्र नहीं होता। ज्ञान और प्रेम असामान्य उपलब्धियां हैं।

उन्हें बताया नहीं जा सकता, उन्हें गाया ही जा सकता है। आश्चर्य नहीं कि भारत का ज्ञान और दर्शन कविता में ही मिलता है। तंत्र या यंत्र से नहीं, मंत्र में ही। राजव्यवस्था में भी मंत्र और मंत्री की ही महत्ता है। यंत्र की नहीं। मंत्र विज्ञान गणित के सत्य सूत्र जैसे हैं। लेकिन उतने ही नहीं, उससे कुछ और ज्यादा।

मंत्र प्राणवान होते हैं और सूत्र निर्जीव जानकारी। मंत्र का अर्थ पूजापाठ के कर्मकाण्ड में दोहराए जाने वाले श्लोकों से ही नहीं लिया जाना चाहिए। बेशक ऐसे मंत्र भी असंगत नहीं हैं। मंत्रों में ज्ञान विज्ञान के संचित, कोश का गहन घनत्व है। संसार का बोध है। ज्ञान प्राप्ति की प्रेरणा है और संसार के साथ स्वयं को भी जांचने परखने का विज्ञान है। पतंजलि ने महाभाष्य में शब्द के अर्थ को महत्वपूर्ण बताया है। हरेक शब्द का हृदय और प्राण होता है।

शब्द का हृदय और प्राण ही अर्थ है। अर्थ न हो तो शब्द बेकार। ज्ञान में अर्थ की महत्ता है। शब्द मंत्र का दोहराव अर्थ तक ले जाता है। पतंजलि ने योगसूत्रों में योग ध्यान के प्रयासों पर भी सुन्दर टिप्पणी की है – धीमा, मध्यम और तीव्र प्रयास करने वालों को तदनुसार परिणाम मिलते हैं” श्रद्धा और आस्तिकता से भरे चित्त ज्ञान प्राप्ति के प्रयास में तीव्रता लाते हैं। सेवया परिप्रश्नेन के साथ प्रणिपातेन भी जरूरी है।

हृदयनारायण दीक्षित