Home Headlines अमरीका से मुक्ति की छटपटाहट में मुस्लिम राष्ट्र

अमरीका से मुक्ति की छटपटाहट में मुस्लिम राष्ट्र

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अमरीका से मुक्ति की छटपटाहट में मुस्लिम राष्ट्र
world's most famous Muslim nations has left US
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world’s most famous Muslim nations has left US

इन दिनों विश्व राजनीति का चक्र उल्टा घूमता हुआ दिखलाई पड़ रहा है। बीसवीं शताब्दी के पांचवें दशक तक दुनिया के अनेक देश स्वतंत्र हो गए, लेकिन देखने में यह आया कि वे जाने अनजाने में दुनियों की दो महाशक्तियों के कहीं न कहीं गुलाम बन गए। अमरीका और रूस की तूती उन दिनों बोला करती थी।

साम्राज्यवाद का शिकंजा ढीला होता जा रहा था। हर गुलाम देश चाहता था कि वह आजाद हो जाए। अपनी आजादी के लिए हर देश हर प्रकार का त्याग और बलिदान देने को तैयार हो जाता था। सामान्यतय: हर परतंत्र देश में यह विचार घर कर गया था कि आजादी उनका जन्मसिद्ध अधिकार है, इसलिए उन्हें अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को येनकेन प्रकारेण प्राप्त कर लेना चाहिए।

लोकतंत्र का यह आशीर्वाद था कि गुलाम देश के लोग संगठित होकर अपने यहां राज कर रही विदेशी सत्ता को येनकेन प्रकारेण अपने यहां से बाहर निकाल दें। कहने की आवश्यकता नहीं कि युरोप का शिकंजा सब से अधिक कसा हुआ था। युरोपियन देशों ने एशिया और अफ्रीका के देशों पर कब्जा जमा कर अपनी सत्ता कायम कर ली थी। इन देशों ने इतना शोषण किया कि गुलाम देशों की जनता त्राही-त्राही पुकारने लगी।

इसका श्रीगणेश अमरीका से हुआ, जब अब्राहम लिंकन के नेतृत्व में अमरीका ने इंग्लैंड से स्वतंत्रता प्राप्त कर ली और एशिया भूखंड में 1947 में जब भारत आजाद हो गया, तो अनेक देशों में यह भावना जन्म लेने लगी कि हम भी अपनी राजनीतिक रूप से स्वतंत्र क्यों न हो जाएं? 1962 में गोवा मुक्ति संग्राम के पश्चात तो गुलाम देशों में इतना अधिक आत्मविश्वास पैदा हो गया कि वे येनकेन प्रकारेण अपने देश को आजाद कराने लगे।

देखते ही देखते एशिया और अफ्रीका के अनेक देश आजाद हो गए। राजनीतिक स्वतंत्रता तो इन गुलाम देशों को मिल गई, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्ति एक बहुत बड़ा मसला बन गया। सभी आर्थिक स्रोत इन देशों के पूंजीपतियों और औद्योगिक घरानों की मुट्ठियों में थे, इसलिए हर नवोदित राष्ट्र की सरकार और जनता के सामने मसला यह हो जाता था कि अपना विकास किस प्रकार करे?

इसलिए आर्थिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए एक आंदोलन भीतर ही भीतर करवटें लेने लगा। हमने देखा कि अरबस्तान और विशेषतय: खाड़ी के देश आजाद होकर भी गुलाम बने रहे, क्योंकि उनके पास न तो इस काम के लिए पूंजी थी और न ही कोई तकनीकी ज्ञान। इसलिए अनुभव यह हुआ कि जो देश कल तक राजनीतिक तौर पर गुलाम थे, वे अब आर्थिक गुलामी के शिकंजे में फंसते चले गए। उक्त संघर्ष अब भी जारी है।

इसलिए हर पिछड़ा देश अपने आर्थिक स्रोतों का उपयोग स्वयं करना चाहता है, इसलिए विदेशी ऋण से लगाकर तकनीकी ज्ञान तक जहां से मिले उसे प्राप्त करने के प्रयासों में जुट गया। विकास के इच्छुक इन देशों की भी यह मजबूरी होती चली गई कि स्वयं की निर्मित वस्तुओं के लिए बाजार की खोज करे। इस मजबूरी ने बड़ी ताकतों के एकाधिकार को तोडऩे की ओर कदम बढ़ाए।

इस समूची व्यवस्था ने विश्व में बड़ी ताकतों के आतंक और एकाधिकार को धक्का पहुंचाया। इसलिए अब यदि विश्व के किसी कोने में कहीं राजनीतिक गुलामी शेष रह गई है तो वे बड़े और समृद्ध देश इस व्यवस्था को अपनाने के लिए तैयार नहीं है।

इसका परिणाम यह आया कि राजनीतिक आजादी के साथ-साथ अब आर्थिक गुलामी के ताने-बाने भी ढीले हो गए। आज तो स्थिति यह है कि अब कोई भी बड़ी ताकत न तो किसी को अपना उपनिवेश बना सकती है और न ही उसकी राजनीतिक मजबूरी का भार अपने सर लेने की इच्छुक दिखलाई पड़ती है।

राजनीतिक गुलामी के दिन तो ढल गए, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता का सूर्य हर देश में नहीं उगा है। इसलिए इन दिनों जो संघर्ष है वह किसी पर कब्जा जमाने के लिए नहीं, बल्कि अपने यहां बनी हुई वस्तु का मार्केट ढूंढने के लिए है। अब स्पर्धा इस बात की है कि उसका बना माल अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बड़े पैमाने पर बिके और साथ ही उसका एकाधिकार बना रहे।

अपने विकास के लिए तकनीकी ज्ञान और निर्मिती के लिए उसकी भौतिक सामग्री तथा ऊर्जा के साधन यदि उसे प्राप्त हो जाते हैं तो वह औद्योगिकीकरण की दौड़ में आगे निकल सकता है। इसलिए परावलम्बी साधनों के लिए आवश्यक सामग्री तथा ऊर्जा उसकी बुनियादी आवश्यकता हो जाती है।

वे बड़ी ताकतें जो कल तक इन साधनों को अपनी मुट्ठी में बंद रखते थे, आज वे उन देशों के लिए परवलम्बी बन गई है जो उनको कच्चे माल के रूप में मिल सके। इसलिए अब राजनीतिक गुलामी के दिन तो लद गए, लेकिन आर्थिक और तांत्रिक गुलामी उनके सामने चुनौती बनकर खड़ी है। इसलिए इन विकासशील देशों को इसकी आवश्यकता है तो विकासशील देशों के बाजार में उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं की खपत की मजबूरी इनके सामने भी है।

दुनिया में पहली मजबूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की थी, लेकिन वह बाद में आर्थिक स्वतंत्रता में बदल गई। कमजोर देश यदि कल तक आर्थिक रूप से गुलाम थे तो अब यह बड़ी ताकतें इन वस्तुओं की निर्मिति और बाजार के लिए इन पर निर्भर है। दिलचस्प बात यह है कि इस विकास में गुलामी के रूप में बदलते चले गए। अब तो स्थिति यह है कि कल तक जो शासक थे, वे अब स्वयं इसी चक्रव्यूह के भुक्तभोगी बनते नजर आ रहे हैं।

अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, ईराक, सीरिया, लीबिया, यमन, मिस्र और सऊदी अरब जैसे सभी मुस्लिम देशों में गृह युद्ध,आतंकवाद और अस्थिरता की स्थिति यह है कि अमेरिका फ्रांस, ब्रिटेन और रूस यानी सभी समृद्ध और प्रगतिशील राष्ट्रों ने इजराईल को अपने बीच में फंसा लिया था, लेकिन यह सभी राष्ट्र धीमें-धीमें इन के चंगुल से स्वतंत्र हो गए। ईरान पर दस वर्षों तक आर्थिक पाबंदी लगाकर।

मुजफ्फर हुसैन