नई दिल्ली। आपराधिक मामलों में दोषी सांसदों और विधानसभा सदस्यों को स्थायी रूप से अयोग्य घोषित करने की मांग एक याचिका पर वृहद पीठ के समक्ष सूचीबद्ध करने पर फैसले के लिए मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ के समक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने मंगलवार को इस मामले का उल्लेख किया और शीघ्र सुनवाई का आग्रह किया।
अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर यह जनहित याचिका, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देती है, जो वर्तमान में दोषी विधायकों को अपनी सजा पूरी करने के बाद केवल छह साल तक चुनाव लड़ने से रोकती है।
पीठ के समक्ष अधिवक्ता हंसारिया ने कहा कि यह गंभीर चिंता का विषय है। समय-समय पर आदेश पारित किए गए हैं। 10 फ़रवरी के आदेश के अनुसार इसे तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाना आवश्यक है।
पीठ ने मामले की तात्कालिकता को स्वीकार किया और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा 10 फ़रवरी, 2025 को पारित आदेश के पैराग्राफ 4 और 5 का हवाला देते हुए निर्देश दिया कि मामले को आगे के निर्देशों के लिए मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाए। अब इस याचिका पर अंतिम सुनवाई 20 अक्टूबर को होने की उम्मीद है जो मुख्य न्यायाधीश की सूची के अधीन है।
फ़रवरी 2025 में केंद्र सरकार ने इस याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि निर्वाचित प्रतिनिधियों की आजीवन अयोग्यता पूरी तरह से संसद के अधिकार क्षेत्र का मामला है, न्यायपालिका को इस पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं है।
केंद्र ने विधायी विभाग के माध्यम से दाखिल जबाव में कहा कि न्यायालय न्यायिक समीक्षा के अपने अधिकार के तहत किसी प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर सकता है, लेकिन वह याचिकाकर्ता द्वारा सुझाए गए छह वर्ष के स्थान पर ‘आजीवन’ शब्द का प्रयोग करने के लिए कानून को फिर से नहीं लिख सकता।
केंद्र ने दलील दी कि मांगी गई राहत में अदालत से धारा 8 की सभी उप-धाराओं में छह साल की बजाय आजीवन अवधि पढ़ने का अनुरोध किया गया है। न्यायिक समीक्षा और संवैधानिक कानून में इसकी जानकारी नहीं है। केंद्र सरकार ने ज़ोर देकर कहा कि आनुपातिकता और तर्कसंगतता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए, अयोग्यता की उचित अवधि तय करने का विवेकाधिकार संसद के पास है।
सरकार ने कहा कि यह कहना एक बात है कि संसद के पास आजीवन प्रतिबंध लगाने का अधिकार है, और यह कहना दूसरी बात है कि उसे सभी मामलों में उस शक्ति का प्रयोग करना चाहिए। केंद्र ने आगे तर्क दिया कि जनहित याचिका अयोग्यता के आधार (अर्थात दोषसिद्धि) और अयोग्यता के प्रभाव (अर्थात उसकी अवधि) के बीच अंतर करने में विफल रही। उसने कहा कि भारतीय दंड विधान अक्सर दोषसिद्धि के बाद अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर समयबद्ध प्रतिबंध लगाते हैं, और इन्हें अनिश्चित काल तक बढ़ाना अनुचित रूप से कठोर और असंगत होगा।
सरकार ने कहा कि निर्धारित समय की समाप्ति पर, दंड स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। निवारण सुनिश्चित होता है, जबकि अनुचित कठोरता से बचा जाता है।”
इसमें यह भी दोहराया गया कि कानूनों का मसौदा तैयार करने या उनमें संशोधन करने के संबंध में संसद को कोई भी निर्देश देना न्यायपालिका की संवैधानिक शक्तियों से परे होगा।
यह जनहित याचिका राजनीति के अपराधीकरण से संबंधित एक बड़ा सवाल उठाती है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी कई बार चिंता जताई है।
न्यायालय ने पिछले कुछ वर्षों में सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामलों की शीघ्र सुनवाई और उम्मीदवारों के खुलासे में अधिक पारदर्शिता लाने के निर्देश जारी किए हैं।
चूँकि यह मामला अब एक बड़ी पीठ के पास जा रहा है, इसलिए इस फैसले के चुनावी सुधारों, विधायी जवाबदेही और विधायी नीति के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं।