संघर्ष समिति: मंच से घोषणा काम अटकाने की, दावे माउंट आबू के हित के

Mount abu tod rock
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सबगुरु न्यूज-सिरोही। अगर कोई संगठन दावा करे कि वो जनहित करना चाहता है। लेकिन, उसी के मंच से ये घोषणा हो कि भाई, हम तो लोगों के काम में अड़ंगा डालेंगे, जो हो वो कर लो। तो इसे पाखण्ड ज्यादा कहा जायेगा।

ये ही हाल माउंट आबू के लोगों को राहत देने के लिए संघर्ष करने का दावा करने वाली संघर्ष समिति का है। दो दिन पहले पोलो ग्राउंड में हुई बैठक में जिस तरह से ये दावा किया गया कि हम तो सरकार द्वारा लोगों को राहत देने के लिए उठाए जा रहे हर कदम में अड़ंगा लगाएंगे उससे ये स्पष्ट है कि संघर्ष समिति में ऐसे स्वार्थी तत्वों की घुसपैठ हो चुकी है जो राहत पहुंचाने की बजाय आहत करने के मूड में ज्यादा हैं।
-भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई या निजी स्वार्थ
पोलो ग्राउंड में हुई संघर्ष समिति की बैठक में ये जताने की कोशिश की गई कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए हर बार न्यायालय जाकर माउंट आबू के लोगों को मिलने वाली राहत को रोकने का काम कर रहे हैं। जबकि ये सर्वविदित है कि ये जनहित की बजाय व्यक्तिगत हित साधने के किये जाने वाली हरकत है।

अगर संघर्ष समिति के मंच से निजी हित के लिए सार्वजनिक हित बताकर अड़ंगा देने वाले लोगों को जगह मिल रही है तो कुछ सवाल उठना लाजिमी है। वो ये कि यदि संघर्ष समिति माउंट आबू के लोगों के लिए संघर्ष कर रही है तो उसके मंच से ये दावा करने वाले चढ़ कैसे गए कि आगे भी माउंट आबू के लोगों का काम में बाधा डालते रहेंगे ? और यदि ऐसे लोग संघर्ष समिति का हिस्सा हैं तो फिर संघर्ष समिति का माउंट आबू के लोगो के पक्ष में संघर्ष करने के दावे के यकीन कैसे किया जाए?

-बडी इजाजत कइयों को एक का ही नाम क्यों?
हाल में प्रशासन ने करीब 185 लोगों को मरम्मत की इजाजत दी है। इनमें दर्जन भर बड़े भवनों की मरम्मत की इजाजत है। तो सवाल ये उठता है कि इन बाकी लोगों के नाम नहीं लेकर एक बंगले को ही टारगेट क्यों किया गया? अगर सिर्फ एक ही बंगले की मरम्मत इजाजत में भ्रष्टाचार हुआ है तो ये मान लिया जाए कि बाकी के 5 को बिना भ्रष्टाचार के मरम्मत इजाजत दी गई है।

या फिर ये 5 ऐसे कद्दावर लोग हैं कि जिनका नाम लेने में खुद संघर्ष समिति परहेज करना चाहती है। इतना ही नहीं कद्दावर लोगों के सामने का आरोप लगाने वाली संघर्ष समिति की इस बैठक में लिम्बड़ी कोठी के ढांचे में अवैधानिक रूप से किये गए परिवर्तन और पूर्व न्यायिक अधिकारी के बंगले के नए निर्माण के मुद्दे की बात तक नहीं की गई। फिर किस मुंह से नैतिकता से संघर्ष समिति ये दावा कर रही है कि कद्दावर लोगों के दबाव में मोनिटरिंग कमिटी या प्रशासनिक अधिकारी काम कर रहे हैं।
– करना ये चाहिये कर रहे हैं ये
माउंट आबू में ईको सेंसेटिव जोन है। फिलहाल, आबूरोड, पिंडवाड़ा और रेवदर के 54 गांवों में भी ईको सेंसेटिव जॉन है। वहां का जोनल प्लान नहीं बना है, माउंट आबू का बन गया है। वहां समस्त अधिकार मोनिटरिंग कमिटी के हैं, माउंट आबू में मॉनिटरिंग कमिटी एक निरीक्षण और मार्गदर्शन संस्थान है व उसके मार्गदर्शन समस्त अधिकार नगर पालिका के पास आ गए हैं।

लेकिन, वहां मोनिटरिंग कमिटी वो सभी नागरिक अधिकार देने का काम कर रही है जिसके उसे अधिकार दिए गए हैं, माउंट आबू में इसी में बाधा डाली जा रही है।
संघर्ष समिति को कहां तो इन अधिकारों को पुनर्स्थापित करने के लिए प्रयास करने चाहिए थे और कहाँ वो ऐसे लोगों को मंच पर जगह दे रही जो ये दावा कर रहे हैं कि वो काम अटकाते रहेंगे।

संघर्ष समिति ऐसे दावे करने वालों को मंच पर देने की बजाय इनके खिलाफ जनता की तरफ से न्यायालयों में खुद पार्टी बनकर ऐसे लोगों को उजागर करने के लिये संघर्ष करती जो लोग खुद लाभ लेकर आम आदमी को लाभों से वंचित करने का प्रयास कर रहे हैं तो लोगों में विश्वास ज्यादा बना पाती।
माउंट आबू में ईको सेंसेटिव जोन है। यहाँ स्थानीय लोगों के मूल अधिकारों से वंचित किए बिना एनवायरमेंट एक्ट लागू है। एनवायरमेंट एक्ट के तहत ही स्थानीय लोगों को मूल अधिकार से वंचित करने वाले नियमों से उदयपुर, नैनीताल, भीमताल, माथेरान आदि स्थानों के लोग सुप्रीम कोर्ट से राहत इसलिए ला पाए कि वहां की संघर्ष समिति ऐसे स्थानीय और बाहरी लोगों के खिलाफ खड़ी थी जो नागरिक अधिकारों को पुनर्स्थापित करने की राह में रोड़ा बन रहे थे न कि माउंट आबू की संघर्ष समिति की तरह ऐसे लोगों को अपने मंच का इस्तेमाल करने की इजाजत दे रही थी।

ऐसे तमाम सबूत बिखरे हुए हैं जो ये सिद्ध करने के लिए काफी हैं कि जनहित के नाम न्यायालयों से स्टे ला लाकर माउन्ट आबू के लोगों को ब्लैक में निर्माण सामग्री खरीदने से मुक्ति देने, जोनल मास्टर प्लान को अंतिम रूप देकर नए निर्माण का मार्ग क्लीयर करवाने आदि राहतों की मार्ग में बाधा बनने वाले निजी हित में और सरकार पर दबाव बनाने के लिए जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में आबूरोड वाले प्रकरण की तरह न्यायालय द्वारा याचिकाकर्ता पर भारी पेनल्टी भी लग सकती है। लेकिन उसके लिए संघर्ष समिति की नीयत ऐसा करने की दिखनी चाहिए।

-मोनिटरिंग कमिटी के नहीं होने का ये नुकसान
माउंट आबू में संघर्ष समिति में वो लोग मंच पर चढ़े जिन्हें ये नहीं पता कि किसी भी ईको सेंसेटिव जोन के लिए मोनिटरिंग कमिटी की महत्ता क्या है? ईको सेंसेटिव जोन में जोनल मास्टर प्लान के लागू होने के बाद भले ही मोनिटरिंग कमिटी की महत्ता परिवार ठीक उस बुजूर्ग की तरह है जो शक्ति क्षीण जरूर है लेकिन, जिसकी राय के बिना काम बिगड़ने की पूर्ण संभावना है।

भले ही माउंट आबू में जोनल मास्टर प्लान लागू होने के बाद मोनिटरिंग कमिटी सिर्फ और सिर्फ एक एडवाइजरी बॉडी है। लेकिन, इसकी एडवाइस लेना ईको सेंसेटिव जोन में जरूरी है। इसके बिना इको सेंसेटिव जोन के निटिफिकेशन का उल्लंघन होता है। इसलिए मोनिटरिंग कमिटी को खुद उच्च न्यायालय ने भी भंग नहीं किया। प्रशासन, नगर परिषद और संघर्ष समिति न्यायालय में अपनी तरफ से पैरवी सही तरीके से करे तो माउंट आबू में बाधा किसी तरह की नहीं है।