Home Breaking विधान सभा चुनाव परिणामों ने तोड़ा गांधी परिवार का तिलस्म

विधान सभा चुनाव परिणामों ने तोड़ा गांधी परिवार का तिलस्म

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विधान सभा चुनाव परिणामों ने तोड़ा गांधी परिवार का तिलस्म
after five state assembly Election results congress shocked
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देश के पांच राज्यों असम, केरल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी और पश्चिमी बंगाल की विधान सभाओं के चुनाव परिणाम सोनिया कांग्रेस के लिए तो कम से कम खतरे का शंखनाद कहा जा सकता है। साम्म्यवादी मोर्चा, जिसका शोर देश में सबसे ज्यादा सुनाई देता है, के लिए ये परिणाम उसके अप्रासांगिक हो जाने की सूचना है। जहां तक भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रवादी ताकतों का सवाल है, उनके लिए ये परिणाम उतने ही उत्साहवर्धक कहे जा सकते हैं।

सोनिया कांग्रेस 2014 के बाद से ही सिमटती जा रही है। दिशाविगीन वह शुरु से ही रही है। इन चुनाव परिणामों के बाद उसका राज केवल कर्नाटक में रह गया है। शेष जिन राज्यों में उसका तथाकथित शासन है उनमें मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड शामिल है। सोनिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी अब मानने लगे हैं कि अगले साल के चुनावों में कर्नाटक उनके हाथ से निकल जाएगा। कम्म्युनिस्ट टोला, जिसमें अब केवल चर्चा के लिए सीपीएम ही बचा है, यदि बंगाल में बहुमत न सही, अपनी दमदार उपस्थिति ही दर्ज करवा देता तो उसकी प्रासांगिकता बची रहती। उसे लगभग तीन सौ सदस्यों वाली विधान सभा में केवल 26 सीटें मिलीं, वे भी तब जब सोनिया कांग्रेस ने उसकी खुल कर मदद की।

चुनाव परिणामों के विस्तृत विश्लेषण से इन के दूरगामी परिणामों को समझने में सहायता मिल सकती है। असम- 2014 के लोक सभा चुनावों में भाजपा ने प्रदेश की 14 सीटों में से 7 सीटें जीत कर रिकार्ड बनाया था और &6.9 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। इन लोक सभा चुनावों में भाजपा ने विधान सभा के 69 क्षेत्रों में अपनी बढ़त बनाई थी। विधान सभा के 2011 में हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 11.5 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे और उसने 126 सदस्यीय विधान सभा में केवल पांच सीटें जीतीं थीं। लेकिन 2016 के इन चुनावों में भाजपा ने अपने बलबूते ही 60 सीटें जीत लीं और 29.5 प्रतिशत मत प्राप्त किए।

उसके सहयोगी दलों असम गण परिषद ने 14 और बोडो पीपुल्ज फ्फ्रंट ने भी 12 सीटें प्राप्त कीं। तीनों ने 40 प्रतिशत मत प्राप्त किए। सोनिया कांग्रेस को 2011 के विधान सभा चुनावों में 78 सीटें प्राप्त कर 79.4 प्रतिशत मत हासिल किए थे। लेकिन पन्द्रह साल से असम में राज कर रही सोनिया कांग्रेस 2016 में केवल 26 सीटों पर सिमट कर रह गई और उसे केवल &1 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। जोड़ तोड़ कर राज्य का मुख्ख्यमंत्री बनने का सपना देखने वाले अजमल बद्दरुदीन की पार्टी भी 1& सीटों पर सिमट गई। पिछली बार उसे 18 सीटों मिलीं थीं। पिछली बार उसे लगभग 1& प्रतिशत मत मिले थे, इस बार यह आंकडा वहीं टिका रहा। बदरुद्दीन ख़ुद भी हार गए।

दरअसल पिछले लम्बे अरसे से सोनिया कांग्रेस जिस प्रकार बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों को प्रश्रय दे रही थी और बदरुद्दीन की पार्टी उन्हें असम में राजनीतिक स्पेस दे रही थी, उसके कारण आम असमिया अपनी पहचान को लेकर ही चिन्तित हो रहा था। असम की जनजातियां अवैध मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों से घिर रहीं थीं।

भारतीय जनता पार्टी ने इन सभी चिन्ताओं का निदान प्रस्तुत किया। जनजातिय पहचान के प्रतीक सर्वानन्द सोनोवाल तो उसके मुख्ख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे ही। बोडो संगठन को भी भाजपा ने अपने साथ जोड़ा। बोडो लोगों का अवैध मुस्लिम बांग्लादेशियों से अनेक बार संघर्ष होता रहा है।

साम्म्यवादी दल जो लम्बे अरसे से असम में प्रासांगिक बनने का प्रयास करते रहे हैं वे इस बार वहां से पूरी तरह साफ हो गए। सोनिया कांग्रेस की असल चिन्ता यह है कि दिसंबर में भगवा फहराने का अर्थ है पूरे पूर्वोत्तर में भाजपा द्वारा पैर पसारने का खतरा। अरुणाचल प्रदेश पक रहा फल है जो कभी भी भाजपा की झोली में टपक सकता है। सात शताब्दी पहले असम ने लचित बडफूकन के नेतृत्व में ब्रह्मपुत्र की लहरों पर सरायघाट के स्थान पर औरंगजेब की सेना को बुरी तरह परास्त कर इतिहास के नए अध्याय की रचना की थी।

इन चुनावों में सोनिया कांग्रेस के मुख्ख्यमंत्री तरुण गोगोई ने स्वयं को उस प्रसंग से जोड़ते हुए कहा कि नरेन्द्र मोदी ने औरंगजेब की तरह असम पर आक्रमण कर दिया है और में लचित बडफूकन की तरह उन्हें परास्त करूंगा। उनके इस बयान के कारण वे पूरे असम में वे हास्य के पात्र ही नहीं बने बल्कि नया जुमला भी चल निकला कि तुरन्त गोगोई असम के भीतर ही औरंगजेब के सेना के नायक बन गए हैं और अपने घर को ही बांग्लादेशियों के पास दे देना चाहते हैं जबकि नरेन्द्र मोदी ने असम के भीतर से ही सर्वानन्द और हेमन्त विश्वशर्मा नए नायक गढ़ दिए हैं जो एक बार फिर सरायघाट पर औरंगजेब को सबक सिखाएंगे।

यही कारण रहा कि बराक घाटी से लेकर ब्रह्मपुत्र घाटी तक और यहां तक कि पर्वतीय जिलों में भी लचित बडफूकन की संतानों ने भाजपा का परचम लहरा दिया। भाजपा ने स्पष्ट कहा कि कि मतान्तरण से बचने के लिए बांग्लादेश से जो हिन्दू भाग कर आ रहे हैं वे घुसपैठिए नहीं बल्कि शरणार्थी हैं और उनको नागरिकता दी जाएगी। इसका बराक घाटी में गहरा असर पड़ा।

दरअसल असम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जो कार्य किया है, उसी की नींव पर राष्ट्रवादी ताकतों ने अपना परचम लहराया है। आज इक्कीसवीं शताब्दी में भाजपा ने सोनिया कांग्रेस को पराजित कर असम में एक नए अध्याय की शुरुआत की है। भाजपा के राम माधव ने असम में भाजपा की जीत को कामाख्या देवी, ब्रह्मपुत्र और शंकरदेव की परम्ंपरा को समर्पित किया।

केरल- – परशुराम की धरती केरल में सोनिया कांग्रेस को केरल के लोगों ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। 140 सदस्यीय विधान सभा में उसे केवल 22 सीटें मिल सकीं और मत प्रतिशत भी 22 प्रतिशत के आसपास ही रहा। उसका यूडीएफ केवल 47 पर सिमट गया। सोनिया कांग्रेस की हार का एक मुख्ख्य कारण राज्य मंत्रिमंडल में व्याप्त के मंत्रियों मे भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है। अन्य राज्यों में भ्रष्टाचार चाहे मुद्दा न होता हो लेकिन केरल में यह मुख्ख्य मुद्दा बन जाता है। यह संयोग ही कहा जाएगा कि मुस्लिम लीग भी सोनिया कांग्रेस के आसपास ही रही। उसने 18 सीटें प्राप्त की।

यहां तक सोनिया कांग्रेस का सवाल है, कर्नाटक को छोड़ कर वह सारे दक्षिण में साफ हो गई है। साम्म्यवादियों के एलडीएफ को 91 सीटें मिलीं जिनमें से सी पी एम के हिस्से 58 और सीबीआई के हिस्से 19 सीटें आईं । सी पी एम के अपने हिस्से 26.5 प्रतिशत वोटें आईं और सी पी आई के हिस्से 8.1 प्रतिशत । जैसा कि केरल की पुरानी परम्परा है सत्ता यूडीएफ और एलडीएफ के बीच बंटती रहती है। इस बार बारी एलडीएफ की थी और उसको जीत हासिल हो गई।

लेकिन केरल की इस पुरानी परंम्परा को पहली बार तोडऩे में भाजपा सफल रही है और उसी के चलते राज्य में स्थापित राजनीतिक दल घबराहट में हैं। 140 सदस्यीय विधान सभा में भाजपा को आज तक एक भी सीट नहीं मिली थी। 2011 के विधान सभा चुनावों में पार्टी ने 1&8 सीटों पर चुनाव लड़ कर 6 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे और 2014 के लोक सभा चुनावों में पार्टी को 10.5 प्रतिशत मत मिले थे। सीट दोनों बार कोई नहीं मिली।

केरल, सोनिया कांग्रेस के यूडीएफ और साम्म्यवादियों के एलडीएफ के बीच झूलता रहा है। भाजपा किसी भी तरह विधान सभा के अन्दर अपना एक अदद सिपाही भेजने के बेताब रही है। भाजपा विधान सभा के अन्दर घुस न सके, इस पर यूडीएफ और एलडीएफ दोनों सहमत हो जाते हैं। केरल में सोनिया कांग्रेस के सिपाहसलार एके एंटनी ने कभी कहा था कि केरल विधान सभा में पास लेकर भाजपा दर्शक दीर्घा में तो बैठ सकती है लेकिन सभा भवन में आ पाना उसके लिए संभव नहीं है। परन्तु इस बार भाजपा ने अपने लिए दर्शक दीर्घा की बजाए विधान सभा का दरबाजा खोल ही लिया है।

तिरुवनन्तपुरम की एक सीट पर कमल खिल आया है। लेकिन यह रक्त कमल है। केरल में साम्म्यवादियों के हाथों न जाने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कितने स्वयंसेवकों ने अपना रक्त बहाया है। भाजपा के वरिष्ठ नेता ओ राजगोपाल ने जीत हासिल की लेकिन अन्य सात सीटों पर भाजपा दूसरे नम्बर पर रही है। एक सीट तो उसने केवल 89 मतों से हारी है। केरल की राजनीति से अनजान व्यक्ति कह सकता है कि एक सौ चालीस सदस्यीय विधान सभा में केवल मात्र एक सीट जीत भर लेने से राज्य की राजनीति में क्या तूफान आ सकता है?

लेकिन सोनिया कांग्रेस और साम्म्यवादी मोर्चा, दोनों ही अच्छी तरह जानते हैं कि भाजपा का अन्तत: राज्य की विधानसभा में घुस पाना ही उन के लिए खतरे की घंटी है। केरल की राजनीति पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले यह आशा करते रहे कि भाजपा अंतिम समय अपनी वोटें किसी एक फ्रंट की ओर मोड़ देगी। लेकिन उनको इस बार बहुत निराशा हुई।

भाजपा ने 10.5 प्रतिशत का अपना वोट बैंक भी सुरक्षित रखा और एक सीट भी झटक ली। लेकिन यदि इसमें भाजपा के सहयोगी दल भारतीय धर्म जन सेना को प्राप्त मतों को भी जोड़ लिया जाए तो यह मत प्रतिशत 15 के पास पहुंच जाता है। इन दोनों दलों ने मिल कर यह चुनाव लड़ा था। जन सेना एझवा समुदाय के उन लोगों की है जो अपने समाज के परम्ंपरागत मूल्यों और संस्कृति को बचाए रखना चाहते हैं। केरल के एझवा राज्य की पिछड़ी जातियों में गिने जाते हैं। उनका प्रभावशाली संगठन श्री नारायण धर्म परिचालन योगम समाजसेवा के कामों के लिए विख्ख्यात है।

इस योगम ने केरल के हिन्दुओं को एक मंच पर एकत्रित करने के लिए भारतीय धर्म जन सेना का गठन किया था। भाजपा ने इस संगठन के साथ मिल कर केरल में एक तीसरे मोर्चा का प्रयोग किया था। इस गठबन्धन को 15 प्रतिशत मत मिलना राज्य की राजनीति में तीसरे मोर्चे के उदय होने के स्पष्ट संकेत देता है। ध्यान रहे केरल में ईसाई और मुसलमान मजहब में मतान्तरित हो चुके केरलीयों की सख्ंख्या लगभग 45 प्रतिशत के आसपास है। यूडीएफ और एलडीएफ दोनों ही सत्ता के मोह में इन दोनों मजहबों के लोगों के तुष्टीकरण में लगे रहते हैं।

लेकिन 2016 के इन चुनावों ने राज्य में एक तीसरे मोर्चे की नींव डाल दी है। भाजपा के नेतृत्व का यह मोर्चा केरल की अस्मिता को आधार बना कर उदय हुआ है। राजदीप सरदेसाई मानते हैं कि अभी शायद केरल में भाजपा के प्रवेश को इतना महत्व नहीं दिया जाए लेकिन केरल में भाजपा के फैलने की भूमिका तैयार हो गई है। ध्यान रहे केवल तिरुवनन्तपुरम जिले में ही भाजपा ने 2& प्रतिशत मत हासिल करके सभी को चौंका दिया। असम की ही तरह केरल में भी यह स्वीकारना होगा कि कई दशकों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस प्रकार वहां समाज सेवा के कार्य में लगा है, उसका फल अब दिखाई देने लगा है।

केरल में सोनिया कांग्रेस के यूडीए़ को &8 प्रतिशत और सीपीएम के एलडीएफ को &9.9 प्रतिशत मत । भाजपा के एनडीए को 15.4 प्रतिशत मत मिले हैं। तीसरे मोर्चा के उदय होने से केरल के मतदाताओं की दोनों मोर्चों में से किसी एक को ही चुनने की विवशता समाप्त हो जाएगी। 2016 के चुनाव की यही सबसे बड़ी उपलब्धि कहीं जा सकती है। मराठी में एक कहावत है। बुढिय़ा मर गई, इस बात का दुख नहीं है, यमराज को घर का पता चल गया है। यह सबसे बड़ा खतरा है ।

केरल में सीपीएम और सोनिया कांग्रेस दोनों को ही भाजपा अपने लिए यमराज के समान दिखाई दे रही है। उसको इन दोनों ही पार्टियों के घर का पता चल गया है। तमिलनाडु- तमिलनाडु में पिछले तीस साल से एक परम्परा स्थापित हो चुकी थी। एक बार अन्ना डी एम के और दूसरी बार केवल डी एम के की सरकार। इसी परम्ंपरा के अनुसार जयललिता और करुणानिधि बदल बदल कर मुख्ख्यमंत्री की कुर्सी संभालते रहे हैं। शायद इसी परम्ंपरा से प्रभावित होकर एक्जिट पोल पंडितों ने भी भविष्यवाणी कर दी थी कि अबकी बारी- करूणानिधि की सवारी। लेकिन अम्म्मा यानि जयललिता ने उस सवारी को रास्ते में ही उल्टा दिया और

तीस साल के इतिहास
को दरकिनार करते हुए लगातार दूसरी बार मुख्ख्यमंत्री की कुर्सी पर कब्जा कर लिया। वैसे तो उम्र के लिहाज से करूणानिधि के लिए मुख्ख्यमंत्री बनने का यह अंतिम अवसर था जो तमिलनाडु के लोगों ने उन्हें नहीं दिया। सोनिया कांग्रेस तमिलनाडु से उन्हीं दिनों खत्म हो गई थी जब वहां दोनों द्रविड़ दलों ने अपना वर्चस्व जमा लिया था। उसके बाद इन दोनों बड़े दलों की गिराई हुई जूठन पर ही वह किसी तरह अपने कुनबे को संभाले हुए थी। इस बार भी उसने करूणानिधि की पार्टी के पीछे चलना स्वीकार किया लेकिन जब शाहसवार ही रणभूमि में औंधे मुंह गिर पड़ा तो पिछलग्गूयों की क्या दशा हुई होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

भरी पूरी विधान सभा में सोनिया कांग्रेस को केवल आठ सीटों पर संतोष करना पडा। जहां तक साम्म्यवादी दलों की बात है, जिस प्रकार देश के बाकी हिस्सों से वे अपनी सफ़ें समेट रहे हैं, उसी प्रकार तमिलनाडु से उनकी सफाई हो गई है। डीएमडीके के अध्यक्ष अभिनेता विजयकान्त भी चुनाव हार गए। वे साम्म्यवादियों के साथ मिल कर तीसरा मोर्चा बना कर प्रदेश की राजनीति में अपने लिए स्पेस तलाश रहे थे।

केरल की तरह तमिलनाडु भी अब तक भाजपा को नाच नचाता रहा है। 2&4 सदस्यीय विधान सभा में अपने बलबूते भाजपा पैर जमाने में अब तक असफल ही रही थी। 2011 के विधान सभा चुनावों में भाजपा ने 204 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे। कोई प्रत्याशी जीत तो नहीं पाया लेकिन पार्टी को 2.2 प्रतिशत मत मिले थे।

2014 के लोक सभा चुनावों में पार्टी को 5.5 प्रतिशत मत मिले थे। 2016 के चुनावों में भाजपा ने अपने 188 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। लेकिन वह अपना खाता नहीं खोल पाई। उसे 2.8 प्रतिशत वोट मिले। सोनिया कांग्रेस को 6.4प्रतिशत मत मिले। जहां तक अन्ना डीएमके और डीएमके गठबन्धन का प्रश्न है उन्हें क्रमश 40.8 और &9.6 प्रतिशत मत मिले। केवल एक प्रतिशत मत के अन्तर ने जमीन आसमान का फर्क डाल दिया। डीएमके के लिए तो एक नुक्ते के हेरफेर से खुदा जुदा हो गया।

पुड्डुचेरी- पुड्उुचेरी विधान सभा की कुल तीस सीटें हैं। इनमें से सोनिया कांग्रेस ने 15 सीटें जीती हैं। दो सीटें डीएमके ने जीत ली हैं। इस प्रकार एक सीट के बहुमत से सोनिया कांग्रेस की सरकार यहां बन सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। जीत तो कोई नहीं सका लेकिन पार्टी को 2.4 प्रतिशत मत मिले जो पिछली विधान सभा के चुनावों में मिले मतों से 1.08 प्रतिशत अधिक हैं।

पश्चिमी बंगाल—- साम्म्यवादी मोर्चा जिसमें सोनिया कांग्रेस भी शामिल थी ने 76 सीटें जीतीं और &8.2 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। लैफ्ट ने 199 और कांग्रेस ने 92 सीटों पर चुनाव लड़ा था। मोर्चा में शामिल सोनिया कांग्रेस ने 92 में से 44 सीटें जीतीं और 12.& प्रतिशत मत प्राप्त किए। मोर्चा के लैफ्फ्ट हिस्से ने 199 में से केवल &2 सीटें जीतीं और 25.9 प्रतिशत मत प्राप्त किए। इन &2 सीटों में से सीपीएम की 26 सीटें हैं।

पश्चिमी बंगाल के डॉ0 श्यामाप्रसाद मुखोपाध्याय ने ही भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी लेकिन उनकी मृत्यु के बाद पार्टी वहां आधार जमा नहीं पाई। 2011 के विधान सभा चुनावों में प्रदेश की 294 सदस्यीय विधान सभा में पार्टी ने 289 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 4.1 प्रतिशत मत मिले थे लेकिन सीट कोई नहीं मिल पाई थी। यह मत प्रतिशत 2014 के लोक सभा चुनावों में बढ़कर 17 प्रतिशत हो गया। 2016 के इन चुनावों में भाजपा गठबन्धन ने 10.7 प्रतिशत मत प्राप्त किए और छह सीटें जीतीं। इनमें से तीन सीटें भाजपा की अपनी हैं। लेकिन सितम्बर 2014 को प्रदेश में दक्षिण बशीरहाट में हुए उपचुनाव में जीत हासिल करने वाले भाजपा के शमिक भट्टाचार्य तृणमूल के हाथों पराजित हो गए।

इस बार 2016 के चुनावों में वाम और सोनिया कांग्रेस दोनों का एक प्रकार से सफाया ही हो गया है। सीपीएम ने इस आशा के साथ सोनिया कांग्रेस के साथ समझौता किया था कि दोनों मिल कर किसी भी तरीके से तृणमूल कांग्रेस को राईटरज बिल्डिंग से बाहर कर देंगे। भारत में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सीपीएम और सोनिया कांग्रेस, दोनों के लिए बंगाल में सत्ता वापिसी लाजमी थी। यदि सत्ता न भी मिल पाए तो कम से कम विधान सभा में प्रतिष्ठाजनक सीटें मिलना तो जरुरी था। इसी मृगतृष्णा के चलते सीपीएम ने सोनिया कांग्रेस से समझौता करके अपने उपर अवसर वादी और सिद्धान्त विहीन होने का ठप्पा लगवा लेना भी मंज़ूर कर लिया।

इतना ही नहीं पार्टी इस मुद्दे पर दो हिस्सों में बँट गई । सीताराम येचुरी खेमा सोनिया गान्धी के साथ जाने के पक्ष में था और प्रकाश करात का खेमा इसके खिलाफ था। परन्तु पार्टी ने प्रकाश करात को दरकिनार करते हुए सोनिया कांग्रेस के साथ मिल कर राजनीति करने का मन बनाया। प्रश्न यह भी उठा कि केरल में सोनिया कांग्रेस को गालियां देना और बंगाल में उसकी शान में कसीदे पढऩा, दास केपिटल की कौन सी नई व्याख्ख्या है जो सीपीएम अपने कैडर के गले उतारने की कोशिश कर रहा है। लेकिन सीपीएम ने इन प्रश्नों को भी निलज्जता से अस्वीकार कर दिया। लेकिन बंगाल के संवेदनशील मतदाताओं पर सीपीएम की इन कवायद का उल्टा असर पड़ा और प्रदेश में पार्टी की रही सही गरिमा भी समाप्त हो गई।

लगभग 75 बर्ष बंगाल पर शासन करने वाली सीपीएम की इतनी दुर्गति की शायद किसी को आशा नहीं थी। लोगों के ग़ुस्से का एक कारण उसका निर्लज्ज गठबंधन था। सीपीएम की विचारधारा और नीतियों का सोनिया कांग्रेस का कहीं दूर का रिश्ता भी नहीं है। लेकिन केवल सत्ता लोलुपता के कारण उसने सोनिया गान्धी से हाथ मिला लिया। विकल्पहीनता की स्थिति में लोगों के पास ममता बनर्जी के पास जाने के सिवा और कौन सा रास्ता बचा था? ममता बनर्जी ने 294 सदस्यों की विधान सा में 211 सीटें जीत कर और 46 प्रतिशत मत प्राप्त कर नया इतिहास रच दिया।

इन चुनाव परिणामों का भारतीय जनता पार्टी के लिए क्या अर्थ है? दरअसल दिल्ली और बिहार विधान सभा चुनावों में पार्टी को हुई गहरी शिक्सत ने देश में यह हवा फैलाने शुरु कर दी थी कि नरेन्द्र मोदी का जन प्रभाव घटने लगा है और हवा बदलने लगी है। इस प्रचार को मीडिया के एक खास हिस्से की सक्रिय सहायता से वैज्ञानिक तरीके से चलाया जा रहा था ताकि वह असर करे। असम में भाजपा की जबरदस्त जीत ने इस प्रचार की हवा ही नहीं निकाल दी बल्कि यह संदेश भी दे दिया दे दिया की भारतीय जनता पार्टी की पकड़ ढीली नहीं हुई है बल्कि उसका राष्ट्रव्यापी प्रसार भी हुआ है।

पूर्वोत्तर भारत को आज तक सोनिया कांग्रेस और उससे पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। लेकिन असम में भाजपा की जीत ने इस गढ़ पर कब्जा ही नहीं कर लिया बल्कि यह संकेत भी दे दिया है कि आने वाली समय इस इलाके में सोनिया कांग्रेस के लिए विनाशकारी सिद्ध होने वाला है। असम प्रयोग से एक और संकेत भी मिलता है इधर उधर बिखरी राष्ट्रवादी ताक़तें भाजपा के नेतृत्व में एकत्रित हो रही हैं। केरल और पश्चिमी बंगाल में भाजपा की एंट्री अभी चाहे प्रतीकात्मक लगे लेकिन सीपीएम व सोनिया कांग्रेस दोनों ही जानते हैं कि आने वाले समय में लोग भाजपा में विकल्प तलाश सकते हैं।

डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री