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बाहर तो उजाला है पर दिल में…

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बाहर तो उजाला है पर दिल में…

सबगुरु न्यूज। दिए का दिल उसका आधार होता है जिसके बलबूते वह टिका रहता है और उसका आधार रूपी दिल सदा अंधेरे में ही रहता है जबकि बाहर ऊजाला रहता है। बाहर की दुनिया भी ऊजाले के कारण उसका अस्तित्व दिल से स्वीकारती हैं।

दिपक मे जब आत्मा का प्रवेश होता तब ही उसके अस्तित्व को स्वीकारा जाता हैं वरना उसे माटी का एक भांडा ही माना जाता है। जैसे व्यक्ति के शरीर मे जब तक आत्मा हैं तब तक ही उसका अस्तित्व होता है नहीं तो वह शव कहा जाता है, मिट्टी के दिए की तरह।

दिए मे आत्मा कहां से आती है इस विषय पर कई मानयताएं हैं लेकिन जमी की मान्यता के अनुसार दिए में तेल और बाती से ही आत्मा का प्रवेश नहीं होता है जब तक अग्नि रूपेण आत्मा का आह्वान नहीं किया जाए। बाती को जैसे ही जला दिया उसमें आत्मा का प्रवेश हो जाता है तथा चारों तरफ प्रकाश हो जाता है।

जीवन की हकीकत भी यही है, हम लगातार मूल्यों और उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कोशिश करते हैं, हर दिन एक नया उद्देश्य, एक नई योजना के साथ हमारे सामने आता है। सब कुछ होने के बाबजूद भी हम बैचैनी से उसे पूरा करनें में लगे रहते हैं।

भले ही बाहर हमे सफ़ल व्यक्ति समझा जाता है लेकिन हम अपने नए भावी उद्देश्य की पूर्ति में वर्तमान के उजाले का आनंद नहीं लेते ओर भावी उजाले की तलाश मे वर्तमान के अंधेरे मे रहते हैं।

संत जन कहते है कि हे मानव जब व्यक्ति वर्तमान को नकार कर भावी सपनों के महल को बनाने में लग जाता है तो वर्तमान को गंवा बैठता है क्योंकि वर्तमान ही भावी महलों की नींव रखता है।

आज आई हुई आपदा की बाढ़ वर्तमान की नींव को कमजोर कर रही है तो भावी सपनों का महल तो गिरेगा ही भले ही तू किसी भी नीति को अपना ले। भविष्य में चांद सितारे की दुनिया मे जाकर तू बस सकता है पर तू आज जहां खड़ा है उस घरती पर भूचाल आ चुका है।

इसलिए हे मानव तू बाहर के उजाले का आनंद ले और अंदर का अंधेरा हटा। लक्ष्मी सदैव भोक्ता की होती हैं अन्यथा दान भोग और नाश ही उसकी गति है।

सौजन्य : भंवरलाल

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