Home Religion स्वर्ण पात्रों से टकराते कच्ची माटी के भांडे

स्वर्ण पात्रों से टकराते कच्ची माटी के भांडे

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स्वर्ण पात्रों से टकराते कच्ची माटी के भांडे

सबगुरु न्यूज। मिट्टी का भांडा एक बार बनने के बाद अपना रूप नहीं बदलता भले ही उसका अस्तित्व मिटा दिय़ा जाए जबकि सोने का बर्तन इच्छाधारी नाग की तरह बार बार अपना मनमाना रूप धारण कर लेता है।

यही जमीनी हकीकत होती हैं कि जब बार-बार अपने हितों को साधने के लिए स्वार्थी तत्व अपने रूप को बदल लेते हैं और जिस वृक्ष पर खड़े होते हैं उसे ही नुकसान पहुंचा कर दूसरे वृक्ष पर छलांग लगा अपने आप को ईमानदार होने का प्रमाण देते हैं। पहले वाले वृक्ष के फल साथ ले जाकर।

ग्राफटेड वृक्ष बनकर वे स्वार्थी तत्व गैर वृक्षों पर उगते हुए भावी लाभ के लिए प्रसन्न तो होते हैं पर दोनों को ही ग्राफ्टिंग वाले वृक्ष का ही प्रमाण पत्र मिलता है। दोनों के मूल गुण धर्मबदल जाते हैं और दोनों ही अपने सिद्धांतों से भटक जाते हैं। सिद्धान्तों से भटके वृक्ष अपने फूल व फल का रंग भी बदलने लगते हैं और इनकी संस्कृति खतरे के निशान को पार कर जातीं हैं। बस यही से समाज में संघर्ष पैदा होने लगते हैं।

माटी के भांडे अपनी सभ्यता ओर संस्कृति को नहीं छोडते और समाज को मजबूती देते हुए समाज की हर संस्था का पोषण करते हैं चाहे वे राजनैतिक, धार्मिक, भूवैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक ही क्यों न हो। यहां मिथ्या प्रचार का कोई स्थान नहीं है और ना ही अहमियत दिखाने का। आदर्श व्यवस्था की यही एक आधारभूत संरचना होती है।

स्वर्ण पात्रों को बिना मिथ्या प्रचार के दुनिया के रंगमंच पर जगह नहीं मिलतीं। इसलिए इनको हर जगह, हर बार अपना रंग रूप बदलना पडता है। ये पालनहार ओर मारणहार बन जाते हैं।इन स्वर्णपात्रों मे आत्मा नहीं होती इसलिए हर घटनाक्रम के बाद ये अपना रूप बदल लेते हैं।

जगत पिता ब्रहमाजी की यज्ञ स्थली पुष्कर तीर्थ में जरतकारू ऋषि की पत्नी जरतकारू को अपने पति के हित के लिए भले ही अपना अहित करा उन्हें छोडना पडा लेकिन पति के नियम संध्या कर्म को नहीं टूटने दिया। जगत में तपस्या कर ‘मनसा ‘देवी के नाम से पूज गईं। यही माटी के भांडे की संस्कृति है भले ही अपना अस्तित्व मिटा दिय़ा पर अपना रूप नहीं बदला।

इसके ठीक विपरीत शुंभ निशुभ दोनों राक्षसों ने ब्रहमाजी की यज्ञ स्थली में जप तप कर वरदान ले लिया और अपनी स्वर्णपात्रों की संस्कृति को अपनाते हुए देवराज इंद्र के स्वर्ग पर कब्ज़ा कर लिया तथा सोने की तरह ही अपना अस्तित्व बदल दिया।

संत जन कहते है कि हे मानव तू अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए अपनी सभ्यता और संस्कृति को बदल मत, उसे मजबूत दिखाने के मिथ्या प्रचार मत कर, सिद्धांतों की संस्कृति का आदर कर तू हार कर भी जीत जाएगा।

सौजन्य : भंवरलाल