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कांटो खटक रियो दिन रात काटो

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कांटो खटक रियो दिन रात काटो

पांव में लगे कांटे की तरह वह रात दिन उसके दिल में खटक रही थी। कभी वह दूसरों को कोसता तो कभी खुद की किस्मत रोता। पांव में लगे कांटे की हरकत जैसे दिमाग में दर्ज हो जातीं और उस हरकत सें सारा बदन पीड़ा को व्यक्त करने लग जाता हैं, ठीक वैसे ही वह मनहूस कांटा उसके दिल के जख्मों को गहरा करता जा रहा था।

वो कांटा नहीं, एक बदनसीबी थीं। वह माया बन कर छलने लगीं थीं। वह बिना बीज के एक दरखत थीं ओर बिना पाल का सरवर थीं। जब उसका मन भूखा होता तो वह उसी बिना बीज के वृक्ष के फल को भी खा लेती और बिना पाल के सरोवर में नहा लेती थीं।

तारों की चमकीली रात के बीच में भी वह सूरज की तरह रोशन थी। गमों की दुनिया में मातम मनाने वालों का वो कांटा थी। बिना धन के भी वो अमीर थी। प्रकृति की तरह वह सुंदर और वस्त्र में वह मेहदी की लाली थी।

ना ये माया थी ओर ना ही मन था और ना ही धर्म या कर्म और ना ही ज्ञान की कोई गठरी थी। वह न तपस्या और न ही त्याग और जप तप की मुरत थीं, ना ही फकीरी में कृष्ण थीं।

वह गंदे गलियारे से निकलीं एक सोच थीजो अपना मायावी जाल बिछा कर अपना खेल खेल खेलती थी। वह ग्रहण लगी पूर्णिमा थी इसलिए बेखौफ थी।

अपनी असफलता की ओर देखता मानव जब इस क़दर परेशान और हैरान हो जाता है तब वह बेहद परेशान हो होकर परमात्मा का ध्यान करता है तब मुसकराते हुए परमात्मा कहता है कि हे प्राणी मैं हूं ना।

सत की संगत में बैठकर जब ये ज्ञान रूपी कांटा लग जाता है तो वह दिन रात खटकता रहता है और व्यक्ति बदनसीबी की माला को परमात्मा के कदमों में डाल देता है ओर निहाल हो जाता है।