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सूखते समुद्र और बिछडती नदियां

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सूखते समुद्र और बिछडती नदियां

सबगुरु न्यूज। इतिहास के झरोखों की धूल झाड़ने के बहाने उनकी कुछ ऐसी मरम्मत कर दी जाती कि वह अपनी मूल विरासत की अखंडता ओर गहनता को भूल जाता है और अपनी विशालता का बोनापन देख उसकी आंखों से आंसू निकल आते हैं।

अपने दर्शन, ज्ञान, विश्वास संस्कृति के बल बूते जाने वाले ये जगत संस्कृति के आधार अब वक्त और हालातों की चपेट में आ कर घायल हो चुके हैं अब इन्हें अपने दम पर नहीं केवल प्रचार प्रसार के कारण ही जानने के लिए मोहताज कर दिया गया।

घर के मुखिया को जैसे उम्र बीतने के साथ साथ भवन की मुख्य ईमारत से निकाल परिसर के बाहरी कमरों में पटक दिया जाता है। उसी की मूल रचना व कला संस्कृति को एक खूबसूरत नाम के साथ जोड, अपने को मूल रचनाकार मान अपनी विशालता को खत्म करने के साथ ही साथ मूल का भी समूल नाश कर दिया जाता है।

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दीपक को यह भान नहीं होता है कि वह रौशन होकर दूसरों को प्रकाश दे रहा है अन्यथा वह रौशन होने के लिए मना कर देता क्योंकि उसकी आड में उससे प्रेम करने वाले पंतगे तो लाश बन जाते हैं पर नकारात्मक शक्ति के सामन्त उसमें नादिर शाही फैसले कर मूल धारा व उसकी कला व संस्कृति को बदल नवीन निर्माता और निर्देशक बन अपनी राग का आलाप करते हैं।

विचारों की गहनता ओर विशालता तो उस समुद्र के जल के समान होती हैं जो अपने आप में कई जीव व जगत की संस्कृतियो को संजोये हुए है और वह सबको अपनों में समाये रखता है और खुद शान्त रह सबकी पूर्ति करता हुआ सदा गंभीर होकर रहता है।

तेज धूप हवा भूकम्प और सुनामी जैसी विपदा उसे तहस नहस करने को आती हैं तो भी वह अपनी मूल विशालता व गहनता से नहीं भागता वो बादल बन वापस बरस जाता है और नदियां भी जल के अभाव में मिलने सें बिछुड जाती है। लेकिन वर्षा बन समुद्र का जल फिर बरस जाता है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव तू अपनी विशालता और गहनता का बादशाह है, तू अपने पथ से भटक मत, अपनी विचारधारा के मार्ग पर मत धकेल वरना ये समुद्र सूख जाएंगे ओर नदियां बिछुड जाएंगी। तू सबका बन, तेरे आने की सार्थकता सिद्ध हो जाएगी।

सौजन्य : भंवरलाल