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मन मिट गया और आत्मा चली गई…

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मन मिट गया और आत्मा चली गई…

सबगुरु न्यूज। आस्तीन में पाले गए सांप मीठा जहर देकर अपने पालन कर्ता को ही जब मारने की कवायद करते हैं तो उनका हश्र उस मिट्टी के खिलौने की तरह होता है जो जमीन पर पटकते ही टुकड़े हो जाता है और उनका अस्तित्व सदा के लिए मिट जाता है। इसके साथ ही मिट जाती हैं उसकी वो जहरीली कीर्ति।

अपनी अहमियत बनाने के लिए ऐसे जहरीले सांप किसी की झूठी वाहवाही करते उन्हें शनैः शनैः मीठा जहर देकर अधर से उसकी आस्तीन से निकल दूसरे सांपों की गैंग में मिल जाते हैं और फिर फण उठाते हैं।

पंच महाभूतों से बना ये शरीर ही मन को बनाता है और उसमें बैठी आत्मा जिसका निर्माण पंच महाभूत नहीं करते वो कैसे, कब और कहां से आती है कोई भी नहीं बता पाया केवल अपने बनाए मापदंडों से ही उसका बखान करता रहता है।

आत्मा को अजर अमर अविनाशी मानकर, शरीर के मरने के बाद हम आत्मा को ही शांति देने के हर प्रयास कर अपनी ही बनाई हुई संस्कृति के तरीकों से करते हैं जबकि मन के लिए कुछ भी नहीं किया जाता है।

“मन” ही शरीर में बैठी आत्मा और शरीर को मंच देता है, वह देव या दानव बनाता है। मन ही वफादार या आस्तीन का सांप बनाता है। यह मन ही है जो आस्तीन में सांप पालता है और आस्तीन को झटक कर उसे कुचल देता है। आस्तीन में जब सांपों का जमावड़ा जाता हो जाता है तो मन मिट जाता है और विदा कर देता है उस शरीर को जिसमें आत्मा का निवास होता है।

यह कहानी या दर्शन शास्त्र की बातें नहीं वरन् जमीनी हकीकत है जहां सभी का पाला पडता है इन सब बातों से चाहे वह अपना हो या पराया।

यह सब बातें केवल जलन, ईर्षा, लोभ-लालच व अंहकार के आभूषण पहन कर व्यक्ति करता है क्योकि वह अपने को बडा मानकर भी बडों जैसा कर्म नहीं करता तथा दूसरों को छोटा समझ उसे नीचा दिखाने के लिए विषैला जहरीला सांप बन डंसने के नाकाम व घिनौने प्रयास करता है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव तू अपनी मर्यादा में जीवन जी, एक एक करके बारी बारी से ये आस्तीन के सांप कुचल कर खुद ही मर जाएंगे और इस मन और आत्मा का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन यह शरीर एवं उसका रखा नाम सर्वत्र बदनाम हो जाएगा। चाहे फिर इस के मरने के बाद कोई भी संस्कार करो।

सौजन्य : भंवरलाल