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दीनहीन नहीं थे सुदामा, उनके पास था ब्रह्मधन

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दीनहीन नहीं थे सुदामा, उनके पास था ब्रह्मधन

kreshna kat

पाली। सुदामा दीन हीन बदनसीब नहीं थे, जो धन उनके पास है वह धन किसी के पास नहीं है। उनके पास तो ब्रहम धन है।  सुदामा और भगवान की मित्रता कैसे होती है।

सुदामा संदीपनि गुरु के यहां पढ़ते हैं और दुवला पतला होने से सभी उनकी मजाक उड़ाते हैं एक बार उनके पांव में कांटा चुभ जाता है जो निकाले से भी नहीं निकलता। सुदामा परेशान होते हैं दर्द हैं पर कुछ उपाय नहीं कर पाते। अचानक ठाकुरजी संदीपनि गुरुजी के आश्रम में शिक्षा के लिए आते हैं और प्रवेश करते ही सुदामा दुखी अवस्था में दिखाई देते हैं। उन्हें रोता देख भगवान श्रीकृष्ण रुक जाते हैं और पूछते हैं कि क्या हुआ मित्र!

सुदमा आश्चर्य चकित रह जाते हैं कि मुझे आज तक किसी ने मित्र नहीं कहा, यह मेरे को तित्र कह रहा है। श्रीकृष्ण सुदामा का कांटा निकालने की चेष्टा करते हैं पर कांटा ऐसे कैसे निकले, वह सुदामा की जांग को अपने उपर रखते हैं और अपनी जीभ से उस कांटे को निकालते हैं भगवान सुदामा के साथ मित्रता करते हैं विचार नहीं करते, सोचो! यह सब संदीपनि गुरु देख रहे थे, पूछा सुदामा क्या हुआ, वे बोले कि इन्होंने मेरा कांटा निकाला है। गुरुजी मन ही मन प्रसन्न हुए और कहा हे सुदामा अब तेरे तो जीवन कांटा निकल गया। भगवान का पकड़ा हाथ छूटता नहीं है। अब श्रीकृष्ण और सुदामा साथ रहते हैं खाते हैं खेलते हैं। सुदामा ठाकुरजी का पूार ध्यान रखते हैं।

खुद कम खाते हैं कि में तो तपस्या कर लूंगा और मेरा मित्र अच्छे से खा ले। अब गुरुकुल से विदाई का समय हो जाता है सुदामा कहते हैं हे कान्हा तू तो मथुरा जाकर मुझे भूल जाएगा मैं क्या करुंगा। याद रखने के लिए सुदामा उपहार लाते हैं, उपहार में बांसुरी देते हैं। ठाकुरजी पूछते हैं कि ये कहां से लाए हो तो सुदामा कहते हैं कि ये मैंने तेरे और गुरुजी से छुपाकर वनाई है। हे कान्हा! बांसुरी हाथ आते ही भगवान को बचपन की ब्रजलीला याद आ जाती है और सुदामा को बताते हैं। सुदामा कहते हैं कि मुझे क्या दोगे। कान्हा देखते हैं क्या दिया जाए तो उन्हें वहां उक लकड़ी पड़ी मिल जाती है, वही देकर चल देते हैं।

अब कान्हा द्वारिकापुरी आते हैं। हाथ में बांसुरी सुदामा की याद दिलाती हैं। एक बार कान्हा बांसुरी का प्रयोग अर्धरात्रि में करते हैं परन्तु वासुदेव जी बाहर हर खड़े होते हैं और गोपियां बाहर आकर देखती हैं लौट जाती है। श्रीकृष्ण तो बांसुरी बजा रहे हैं पर गोपियां कैसे जाए। तो कान्हा सुदामा की दी गई बांसुरी से गड्डा खोदते हैं और उसमें से गोपियां निकलतीं है और रासलीला के बाद गोपियां वहीं चलीं जाती है। उस तालाब का नाम गोपी तालाब है।

सुदामा सदैव कन्हैया को याद करते हैं तो उनकी पत्नी सुशीला कहती हैं कि जब भगवान को इतना याद करते हो तो एक बार मिलकर आ जाओ। सुशीला स्वयं कहती है कि आप जाओगे तो सब ये न सोंचे कि ये कुछ मांगने के लिए आए होंगे पर ऐसा कुछ नहीं है। सुदामा गाते हैं

तुम्हारी याद आती है बताओ क्या करें मोहन
सुबह और शाम आती है रात भर बो रुलाती है
चैन हमको नहीं आता बताओ क्या करें मोहन।

संकोच क्यों कर रहे हो स्वामी, वो जाते ही पूछेंगे क्या लाए हो। सुशीला भीतर जाती है और कुछ बचे हुए चावल लाती है और अपनी चुनरी में से कपड़ा फाड़ कर बांध देती है।

चले श्यामसुन्दर से मिलने सुदामा

अब सुदामा अपने सखा श्यामसुन्दर से मिलने के लिए द्वारिकापुरी को चल देते हैं रास्ते में पता नहीं कितनी परेशानी उठानी पड़ी, फिर भी वह द्वारिकापुरी पहुंच जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के दरबार के सामने जाकर कहते है कि मुझे तो कान्हा से मिलना है। दरबारी सोचते हैं कि दीन हीन फटे पुराने कपड़े पहने व्यक्ति भगवान से मिलने की कह रहा है, क्या किया जाए। उधर भगवान स्वयं व्याकुल हो रहे थे सुदामा से मिलने के लिए।

इतने में द्वारपाल जाते हैं। शिष्टाचार करते हैं पर भगवान मना कर देते हैं कि सीधे कहो! द्वारपाल संदेश देते हैं के सुदामा जी आए हैं और वह भगवान खुद को आपका मित्र बता रहे हैं इतना सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण दौड़े चले आते हैं। देखते ही सुदामा को गले लगा लेते हैं सभी आश्चर्यचकित हो रहे हैं कि ये क्या हो रहा है। अब हाथ पकडड़कर सुदामा को राजभवन में ले जाकर सिंहासन पर बिठाते हैं।सुदामा के साथ पुरानी यादों में खो जाते हैं, गुरुकुल की याद दिलाते हैं।

सुदामा की आंखों में आंसू बह रहे हैं स्वयं श्रीकृष्ण पांव धो रहे हैं। रानी सोचती हैं कि ये हो क्या रहा है। श्रीकृष्ण सुदामा से कहते हैं के तू ये बता मेरे लिए क्या लाया है, सुदामा को संकोच होता है जो में लाया हूं वह तो कुछ भी नहीं है। पर कृष्ण तो जो पोटली सुदामा के पास है, उसे खींच लेते है और बड़े चाव से खाते हैं। कपड़े को सिर पर बांध लेते हैं कि मेरी भाभी खुद नहीं आ सकी उसने अपनी चुनरी से ये कपड़ा फाड़कर भेजा है यह मेरा आशीर्वाद है।

सुदामा को संकोच होता है कि मेरे को इतने दिन हो गए हैं ये तो मेरे पीछे ही रहता है सारा काम बिगड़ रहा होगा। अब मुझे तो चलना चाहिए।
श्रीकृष्ण व्याकुल हो जाते है पर सुदामा को तो जाना ही है। सुदामा श्रीकृष्ण को सौगंध खिलाते हैं तो भगवान श्यामसुन्दर अपने सखा सुदामा को भेजने का सोचते हैं। हिम्मत बांधकर विदा देते हैं सुदामा को बाहर छोड़ते हैं, सुदामा पैदल ही चल पड़ता हैं।

उद्धव कहता है कि महाराज ये बताओ आपने तो सुदामा का गाड़ी रथ कुछ भी नहीं दिया। भगवान कहते हैं कि हे उद्धव सुदामा जैसे पवित्र व्यक्ति के जितने कदम द्वारिकापुरी की धरती पर पड़ेंगे उतनी जमीन पवित्र होती चली जाएगी। ऐसा है सुदामा का चरित्र। सुदामा अपने घर पहुंचते हैं तो सुशीला एक झोपड़ी में बैठी पूजा कर रही हैं और सुदामापुरी राजमहल में बदल गई है। भगवान देते हैं पर कहते नहीें है वताते नहीं है।

सुदामा ने सुशीला को कहा कि राजमहल में चलो यहां क्यों बैठी हो, सुशीला कहती है कि ये सब कुछ यहां के लोगों को दे दो जिनके पास कुछ भी नहीं हैं अपने को तो सिर्फ भजन करना हैं। सुदामा सब दे देता है। भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता सच्ची मित्रता है। भगवान और भक्त आपस में मिले है। यह वृतांत शुक्रवार को पाली नगरी स्थित अग्रसेन वाटिका में चल रही गो भक्त श्रीराधकृष्ण महाराज ने भक्तगणों के समक्ष प्रस्तुत कर उन्हें भावविभोर कर दिया।

प्रभातफेरी निकाली

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आदर्शनगर शीतला माता मंदिर से बजरंग नगर, जनता कालोनी , बसंतविहार में प्रभातफेरी निकाली। रामेष्वर प्रसाद गोयल, कैलाश चन्द्र गोयल, कमल किशोर गोयल, गोपाल गोयल, परमेष्वर जोशी, अषोक जोषी, किसन प्रजापत, दिनेश जोषी, अंबालाल सोलंकी, आनंदीलाल चतुर्वेदी, शंकर भासा , पूरणप्रकाश निंबार्क, विजयराज सेानी, धनराज दैया, पार्षद ताराचंद , बजरंगलाल हुरकुट, प्रवीण सेामानी, पार्षद सुरेश चौधरी, हरिगोपाल सेानी, सहित तीन सौ से अधिक श्रद्धालु उपस्थित थे।

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