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क्या पड़ोसी पाकिस्तान के साथ संबंध सुधरेंगे ?

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क्या पड़ोसी पाकिस्तान के साथ संबंध सुधरेंगे ?
Relationship between india and pakistan will improve?
Relationship between india and pakistan will improve?
Relationship between india and pakistan will improve?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पड़ोसी पाकिस्तान के सदर नवाज़ शरीफ के बीच पेरिस में करीब ढाई मिनट की मुलाकात के गहरे मतलब निकालना अभी जल्दबाजी होगी, किन्तु इस “अचानक” हुई भेंट की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है।

भारतीय जनता पार्टी  को दिल्ली की गद्दी संभाले डेढ़ साल हो चुका है, फिर भी दोनों देशों के रिश्तों में जमी बर्फ ज्यों की त्यों है। पिछले साल मोदी की ताजपोशी में जब शरीफ शामिल हुए, तब लगा था कि कूटनीति के मकड़जाल से निकल दोनों देश संबंध सामान्य करने की दिशा में जल्द ही कुछ ठोस कदम  उठाएंगे।

मोदी और शरीफ काठमांडू (नेपाल) और ऊफा (रूस) में भी मिल चुके हैं, लेकिन दोनों देशों के बीच कायदे से बातचीत का सिलसिला अभी तक शुरू नहीं हो सका है। गत वर्ष अगस्त माह में भारत-पाक के विदेश सचिवों की वार्ता तय थी, किन्तु ऐन वक्त पर दिल्ली स्थित पाक उच्चायुक्त ने हुर्रियत नेताओं को न्योता देकर इस पहल की भ्रूण हत्या कर दी।

दोनों प्रधानमंत्री ऊफा में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशन (डीजीएमओ) स्तर के अधिकारीयों की वार्ता को राजी हुए थे, किन्तु इसमें भी फच्चर फंस गया। गत अगस्त माह में प्रस्तावित इस वार्ता का तय एजेंडा आतंकवाद और सीमा पर गोलीबारी की वारदात था, किन्तु पाकिस्तान चाहता था कि कश्मीर सहित सभी विवादस्पद मुद्दों पर चर्चा हो। उसकी पलटी के कारण बातचीत की गाड़ी पटरी से उतर गयी।

पेरिस में आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का दबाव बढ़ा है, इसी कारण नवाज़ शरीफ को बयान देना पड़ा कि अब उनका देश भारत से बिना शर्त वार्ता को तैयार है। अपनी खस्ता माली हालत से परेशान पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड भारत के साथ श्रीलंका में सीरिज़ खेलने को बेताब है और यह काम भी बिना मोदी सरकार की सहमति के असंभव है।

मोदी और नवाज़ की सद इच्छा के बावजूद दोनों देशों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ मेज पर बैठने में अभी कई बाधा और हैं, जिन्हें दूर किया जाना जरुरी है। भारत सरकार को पता है कि पड़ोसी देश में सत्ता का असली केंद्र सेना है। वहां की सिविल सरकार पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई के इशारे के बिना कोई बड़ा कदम नहीं उठा सकती। भारत सरकार यह भी जानती है कि कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी संगठनों के सिर पर आईएसआई का वरदहस्त है और कुख्यात दाउद इब्राहिम अभी तक आईएसआई की शरण में है।

पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर गोलीबारी की घटना लगातार जारी हैं। अकेले एक वर्ष (2014) में शांति उल्लंघन के 800 मामले प्रकाश में आए। हाल ही में एक पाक जासूस को गिरफ्तार किया गया, जिससे पड़ोसी देश के षड्यन्त्र का खुलासा हुआ है। ऐसे में मोदी सरकार के लिए अचानक बातचीत बहाल करने का निर्णय आसन नहीं है।

किन्तु कूटनीति में कई बार साहसिक निर्णय लेने पड़ते हैं और यह निर्णय केवल एक राष्ट्राध्यक्ष ही ले सकता है। पाकिस्तान के साथ भारी तनाव के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यह साहस दिखाया था, जिसकी आज तक  सर्वत्र प्रशंसा होती है। अब निर्णय की डोर मोदी के हाथ में है।

इस संदर्भ में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला के ताज़ा बयान पर गौर करना जरुरी है।  बयान में उन्होंने दो बात पते की कही। पहली यह कि जो कोई कश्मीर समस्या का समाधान सुझाता है, तुरंत उसका विरोध शुरू हो जाता है और दूसरी यह कि हमारी पूरी सेना भी आतंकवाद से कश्मीर की रक्षा नहीं कर सकती।

भावनाओं में न बहकर निरपेक्ष भाव से यदि उनके बयान का परीक्षण किया जाये तो पता चलता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता ने कटु सत्य ही कहा है। अनुभव बताता है कि दोनों देशों की जनता सुख और शांति से रहना चाहती है लेकिन पिछले छह दशक से कश्मीर विवाद को जिन्दा रख कुछ राजनैतिक दल और संगठन अपना स्वार्थ साध रहे हैं। इस काम में अमेरिका जैसा देश भी शामिल है, जो तनाव और असुरक्षा की आड़ में दोनों देशों (भारत-पाकिस्तान) को अरबों डालर के हथियार बेचता है।

यह बात भी सब जानते हैं कि युद्ध या सेना के बल पर कभी किसी समस्या का स्थाई हल नहीं निकाला जा सकता है। दोनों विश्व युद्ध के बाद भी वार्ता के माध्यम से समझौता हुआ था। भारत-पाक के बीच अब तक चार जंग (कारगिल सहित) हो चुकी हैं, फिर भी कश्मीर की समस्या ज्यों की त्यों है। दोनों तरफ के जितने सैनिक इन चार लड़ाईयों में मारे गए हैं उससे कई गुना ज्यादा नागरिक घाटी में आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं। क्या इसी वजह से दोनों देशों के बीच वार्ता शुरू होना जरुरी नहीं है ?

एक और कारण है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अगले वर्ष सार्क सम्मलेन में भाग लेने इस्लामाबाद जाना है। इस यात्रा से पहले दोनों देश 2013 से टूटे बातचीत के बंधन को बहाल करना चाहते हैं। यह काम कठिन जरुर है किन्तु असंभव नहीं। शिखर वार्ता से पहले वीसा छूट, व्यापार वृद्धि, सीमा खोलने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, खेल संबंध जोड़ने जैसे कदम उठाये जा सकते हैं। छोटी-छोटी पहल बड़े समझौते का आधार बनती हैं। हाँ, यह काम जितना पारदर्शी होगा, उसे उतना ही जन-समर्थन मिलेगा। आशा है मोदी सरकार यह बात समझ चुकी होगी।

धर्मेन्द्रपाल सिंह