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विराट संत सम्मेलन में भारतीय संस्कृति का गुणगान

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विराट संत सम्मेलन में भारतीय संस्कृति का गुणगान
virat sant sammelan at ramlila maidan in jalalabad
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जलालाबाद। विराट संत सम्मेलन में सन्त महापुरुषों ने कहा कि भारतीय संस्कृति में सदाचार, राष्ट्रभक्ति मातृभक्ति, पितृभक्ति, धार्मिकता, सामाजिकता, नैतिकता, आदि गुण मनुष्य में कूट कूट कर भरे होते है। इसी संस्कृति से पोषित राष्ट्रभक्ति मातृभक्ति, पितृभक्ति, धार्मिकता, सामाजिकता पैदा होती है।

संत सम्मेलन में अखिल भारतीय सोहम् हामंडल वृन्दावन के पीठाधीस्वर स्वामी विवेकानंद ने श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला।

सोहम् पीठ के उत्तराधिकारी स्वामी सत्यानंद महाराज ने कहा कि मातृ देवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव, धर्मचर इत्यादि महत्वपूर्ण बिन्दु हैं जिन पर हम सबको आचरण बनाए रखना चाहिए इनके बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है। भारतीय संस्कृति के कारण ही भारत देश महान हुआ है।

भारत में ही ज्ञान का प्रकाश का फैला जिसने संपूर्ण संसार में भारत को विश्वगुरु का स्थान प्राप्त हुआ। आपको पाश्चात्य संस्कृति में जो अच्छा है उसे ग्रहण करना चाहिए और जो खराब है उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए।

भारतीय संस्कृति के मानक विन्दुओं को अनदेखा न करें। रामायणी श्री स्वामी ज्ञाननंदजी महाराज ने कहा कि संवायां किं न लभ्यते अर्थात सेवा के द्वारा क्या प्राप्त नहीं किया जा सकता है, सेवा से ही सब कुछ प्राप्त होता है। हनुमानजी ने राम को सेवा करके ही अपने वस में किया था। माताएं अपने बच्चों की सेबा करके ही अच्छे संस्कार देती हैं। इंसान को योग्य बनाने
में मां की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

स्वामी प्रीतमदास ने भरत के चरित्र को एवं भाई हो तो भरत जैसा को बहुत ही मार्मिक तरीके से श्रद्धालुओं को समझाया। उन्होंने कहा कि भगवान श्रीराम के लिए रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई। स्वामी सदानंद ने सत्संग में पूजा करने में सावधानी बरतने का कहा। भगवान व संत का पता भी नहीं लग पाता कब नाराज हो जाएं इसलिए सदैव संत का आदर व भगवान की पूजा में सावधानी बरतें।

स्वामी गीतानंद ने भगवद भजन करने पर जोर दिया। भजनों के प्रकार के पर ध्यान देने को कहा एवं समझाया। स्वामी नारायणनंद ने श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि जीवन की प्रथम अवस्था में विद्या का अर्जन और युवा अवस्था में धन का अर्जन जिसने नहीं किया वह अंतिम समय में कुछ भी करना चाहे, चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता। वह वृद्धावस्था में असफल हो जाता है। ब्रह्मचारी गौरवस्वरुप ने अपने ब्रह्मचर्य की साधना एवं ब्रह्मचर्य के महत्व को वताया।

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